ऋग्वेद 1.22.8

 साय आ नि षीदत सविता स्तोम्यो नु नः।

दाता राधांसि शुम्भति॥८॥

सखायः। आ। नि। सीदत। सविता। स्तोम्यः। नु। नः। दाता। राधांसि। शुम्भति।। ८॥

पदार्थः-(सखायः) परस्परं सुहृदः परोपकारका भूत्वा (आ) अभितः (नि) निश्चयार्थे (सीदत) वर्तध्वम् (सविता) सकलैश्वर्ययुक्तः। ऐश्वर्यहेतुर्वा (स्तोम्यः) प्रशंसनीयः (नु) क्षिप्रम्न्विति क्षिप्रनामसु पठितम्(निघ०२.१५) (न:) अस्मभ्यम् (दाता) दानशीलो दानहेतुर्वा (राधांसि) नानाविधान्युत्तमानि धनानि (शुम्भति) शोभयति॥८॥

अन्वयः-हे मनुष्या यूयं सदा सखायः सन्त आनिषीदत यः स्तोम्यो नोऽस्मभ्यं राधांसि दाता सविता जगदीश्वरः सूर्यो वा शुम्भति तं नु नित्यं प्रशंसत॥८॥

भावार्थः-अत्र श्लेषालङ्कारः। नैव मनुष्याणां मित्रभावेन विना परस्परं सुखं सम्भवति। अतः सर्वेः परस्परं मिलित्वा जगदीश्वरस्याग्निमयस्य सूर्य्यादेर्वा गुणानुपदिश्य श्रुत्वा च तेभ्यः सुखाय सदोपकारो ग्राह्य इति॥८॥

पदार्थ:-हे मनुष्यो! तुम लोग सदा (सखायः) आपस में मित्र सुख वा उपकार करने वाले होकर (आनिषीदत) सब प्रकार स्थित रहो और जो (स्तोम्यः) प्रशंसनीय (न:) हमारे लिये (राधांसि) अनेक प्रकार के उत्तम धनों को (दाता) देनेवाला (सविता) सकल ऐश्वर्ययुक्त जगदीश्वर (शुम्भति) सबको सुशोभित करता है उसकी (नु) शीघ्रता के साथ नित्य प्रशंसा करो। तथा हे मनुष्यो! जो (स्तोम्यः) प्रशंसनीय (न:) हमारे लिये (राधांसि) उक्त धनों को (शुम्भति) सुशोभित कराता वा उनके(दाता) देने का हेतु (सविता) ऐश्वर्य देने का निमित्त सूर्य्य है उसकी (नु) नित्य शीघ्रता के साथ प्रशंसा करो॥८॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार हैमनुष्यों को परस्पर मित्रभाव के विना कभी सुख नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को योग्य है कि एक-दूसरे के साथ होकर जगदीश्वर वा अग्निमय सूर्यादि का उपदेश कर वा सुनकर उनसे सुखों के लिये सदा उपकार ग्रहण करें।।८॥

पुनरग्निगुणा उपदिश्यन्ते।

फिर अगले मन्त्र में अग्नि के गुणों का उपदेश किया है