ऋग्वेद 1.22.4

 मित्रं वयं हवामहे वरुणं सोमपीतये।

जज्ञाना पूतदक्षसा॥४॥

मित्रम्। वयम्। हुवामहे। वरुणम्। सोमऽपीतये। ज़ज्ञाना। पूतऽदक्षसा॥ ४॥

पदार्थ:-(मित्रम्) बाह्याभ्यन्तरस्थं जीवनहेतुं प्राणम् (वयम्) पुरुषार्थिनो मनुष्याः (हवामहे) गृह्णीमः । अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शप: श्लुन। (वरुणम्) ऊर्ध्वगमनबलहेतुमदानं वायुम् (सोमपीतये) सोमानामनुकूलानां सुखादिरसयुक्तानां पदार्थानां पीति: पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। अत्र सहसुपेति समासः (जज्ञाना) अवबोधहेतू (पूतदक्षसा) पूतं पवित्रं दक्षोबलं याभ्यां तो। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः॥४॥

अन्वयः-वयं यौ सोमपीतये पूतदक्षसो जज्ञानौ मित्रं वरुणं च हवामहे, तो युष्माभिरपि कुतो न वेदितव्यौ॥४॥

भावार्थ:-नैव मनुष्याणां प्राणोदानाभ्यां विना कदापि सुखभोगो बलं च सम्भवति, तस्मादेतयोः सेवनविद्या यथावद्वेद्यास्ति॥४॥

पदार्थ:-(वयम्) हम पुरुषार्थी लोग जो (सोमपीतये) जिसमें सोम अर्थात् अपने अनुकूल सुखों को देने वाले रसयुक्त पदार्थों का पान होता है, उस व्यवहार के लिये (पूतदक्षसा) पवित्र बल करने वाले (जज्ञाना) विज्ञान के हेतु (मित्रम्) जीवन के निमित्त बाहर वा भीतर रहने वाले प्राण और (वरुणम्) जो श्वासरूप ऊपर को आता है, उस बल करने वाले उदान वायु को (हवामहे) ग्रहण करते हैं, उनको तुम लोगों को भी क्यों न जानना चाहिये।।४॥ ___

भावार्थ:-मनुष्यों को प्राण और उदान वायु के विना सुखों का भोग और बल का सम्भव कभी नहीं हो सकता, इस हेतु से इनके सेवन की विद्या को ठीक-ठीक जानना चाहिये।।४॥

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है