तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिधते।
विष्णोर्यत्परमं पदम्॥ २१॥७॥५॥
तत्। विसः। विपन्यवः। जागृऽवांसः। सम्। इधते। विष्णोः। यत्। परमम्। पदम्।। २१॥
पदार्थ:-(तत्) पूर्वोक्तम् (विप्रासः) मेधाविनः (विपन्यव:) विविधं जगदीश्वरस्य गुणसमूह पनायन्ति स्तुवन्ति ये ते। अत्र बाहुलकादौणादिको युच् प्रत्ययः। (जागृवांसः) जागरूकाः। अत्र जागर्तेर्लिटः स्थाने क्वसुः। द्विवचनप्रकरणे छन्दसि वेति वक्तव्यम्। (अष्टा०वा०६.१.८) अनेन द्विर्वचनाभावश्च। (सम्) सम्यगर्थे (इधते) प्रकाशयन्ते (विष्णोः ) व्यापकस्य (यत्) कथितम् (परमम्) सर्वोत्तमगुणप्रकाशम् (पदम्) प्रापणीयम्॥२१॥ ___
अन्वयः-विष्णोर्जगदीश्वरस्य यत्परमं पदमस्ति तद्विपन्यवो जागृवांसो विप्रासः समिन्धते प्राप्नुवन्ति॥२१॥
भावार्थ:-ये मनुष्या अविद्याधर्माचरणाख्यां निद्रां त्यक्त्वा विद्याधर्माचरणे जागृताः सन्ति त एव सच्चिदाननन्दस्वरूपं सर्वोत्तमं सर्वेः प्राप्तुमर्ह नैरन्तर्येण सर्वव्यापिनं विष्णुं जगदीश्वरं प्राप्नुवन्ति॥२१॥
पूर्वेसूक्तोक्ताभ्यां पदार्थाभ्यां सहचारिणामश्विसवित्रग्निदेवीन्द्राणीवरुणान्यग्नायीद्यावापृथिवीभूमिविष्णूनामर्थानामत्रप्रकाशितत्वात् पूर्वसूक्तेन सहास्य सङ्गतिरस्तीतिबोध्यम्।।
इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याये सप्तमो वर्गः॥७॥
प्रथमे मण्डले पञ्चमेऽनुवाके द्वाविशं सूक्तं च समाप्तम्॥ २२॥
पदार्थ:-(विष्णोः) व्यापक जगदीश्वर का (यत्) जो उक्त (परमम्) सब उत्तम गुणों से प्रकाशित (पदम्) प्राप्त होने योग्य पद है (तत्) उसको (विपन्यवः) अनेक प्रकार के जगदीश्वर के गुणों की प्रशंसा करनेवाले (जागृवांसः) सत्कर्म में जागृत (विप्रासः) बुद्धिमान् सज्जन पुरुष हैं, वे ही (समिधते) अच्छे प्रकार प्रकाशित करके प्राप्त होते हैं।।२१॥
भावार्थ:-जो मनुष्य अविद्या और अधर्माचरणरूप नींद को छोड़कर विद्या धर्माचरण में जाग रहे हैं, वे ही सच्चिदानन्दस्वरूप सब प्रकार से उत्तम सबको प्राप्त होने योग्य निरन्तर सर्वव्यापी विष्णु अर्थात् जगदीश्वर को प्राप्त होते हैं।॥२१॥
पहिले सूक्त में जो दो पदों के अर्थ कहे थे उनके सहचारि अश्वि, सविता, अग्नि, देवी, इन्द्राणी, वरुणानी, अग्नायी, द्यावापृथिवी, भूमि, विष्णु और इनके अर्थों का प्रकाश इस सूक्त में किया है, इससे पहिले सूक्त के साथ इस सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये
इसके आगे सायण और विलसन आदि विषय में जो यह सूक्त के अन्त में खण्डन द्योतक पङ्क्ति लिखते हैं, सो न लिखी जायेगी, क्योंकि जो सर्वथा अशुद्ध है, उसको बारंबार लिखना पुनरुक्त और निरर्थक है, जहाँ कहीं लिखने योग्य होगा, वहाँ तो लिखा ही जायेगा, परन्तु इतने लेख से यह अवश्य जानना कि ये टीका वेदों की व्याख्या तो नहीं हैं, किन्तु इनको व्यर्थ दूषित करनेहारी हैं।
इति १.२ सप्तमो वर्गः॥
प्रथमे मण्डले पञ्चमेऽनुवाके द्वाविंशं सूक्तं च समाप्तम्॥