मही द्यौः पृथिवी च न इमं यज्ञं मिमिक्षता
म्पपृतां नो भरीमभिः॥१३॥
मही। द्यौः। पृथिवी। च। नः। इमम्। यज्ञम्। मिमिक्षताम्। पिपृताम्। नः। भरीमऽभिः॥ १३॥
पदार्थ:-(मही) महागुणविशिष्टा (द्यौः) प्रकाशमयो विद्युत् सूर्यादिलोकसमूहः (पृथिवी) अप्रकाशगुणानां पृथिव्यादीनां समूहः (च) समुच्चये (न:) अस्मभ्यम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (यज्ञम्) शिल्पविद्यामयम् (मिमिक्षताम्) सेक्तुमिच्छताम् (पिपृताम्) प्रपिपूर्त्तः। अत्र लडर्थे लोट। (न:) अस्मान् (भरीमभिः) धारणपोषणकरैर्गुणैः। 'भृञ्' धातोर्मनिन् प्रत्ययो बहुलं छन्दसि इतीडागमः।१३
अन्वयः-हे उपदेश्योपदेष्टारौ युवां ये मही द्यौः पृथिवी च भरीमभिर्न इमं यज्ञं नोऽस्मांश्च पिपृतामङ्गैः सुखेन प्रपिपूर्तस्ताभ्यामिमं यज्ञं मिमिक्षतां पिपृतां च।।१३॥
भावार्थ:-द्योरिति प्रकाशवतां लोकानामुपलक्षणं पृथिवीत्यप्रकाशवतां च। मनुष्यैरेताभ्यां प्रयत्नेन सर्वानुपकारान् गृहीत्वा पूर्णानि सुखानि सम्पादनीयानि।।१३।।
पदार्थ:-हे उपदेश के करने और सुनने वाले मनुष्यो! तुम दोनों जो (मही) बड़े-बड़े गुण वाले (द्यौः) प्रकाशमय बिजुली, सूर्य आदि और (पृथिवी) अप्रकाश वाले पृथिवी आदि लोकों का समूह (भरीमभिः) धारण और पुष्टि करने वाले गुणों से (नः) हमारे (इमम्) इस (यज्ञम्) शिल्पविद्यामय यज्ञ (च) और (नः) हम लोगों को (पिपृताम्) सुख के साथ अङ्गों से अच्छी प्रकार पूर्ण करते हैं, वे (इमम्) इस (यज्ञम्) शिल्पविद्यामय यज्ञ को (मिमिक्षताम्) सिद्ध करने की इच्छा करो तथा (पिपृताम्) उन्हीं से अच्छी प्रकार सुखों को परिपूर्ण करो।।१३।___
भावार्थ:-'द्यौः' यह नाम प्रकाशमान लोकों का उपलक्षण अर्थात् जो जिसका नाम उच्चारण किया हो वह उसके समतुल्य सब पदार्थों के ग्रहण करने में होता है तथा 'पृथिवी' यह विना प्रकाश वाले लोकों का है। मनुष्यों को इन से प्रयत्न के साथ सब उपकारों को ग्रहण करके उत्तम-उत्तम सुखों को सिद्ध करना चाहिये।।१३।
एताभ्यां कि कार्यमित्युपदिश्यते।
उक्त दो प्रकार के लोकों से क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है