ऋग्वेद 1.22.12

 हेन्द्राणीमुप॑ ह्वये वरुणानीं स्व॒स्तये।

अ॒ग्नायीं सोमपीतये॥१२॥

इह। इन्द्राणीम्उप। ढ्ये। वरुणानीम्। स्व॒स्तये। अग्नायीम्। सोम॑ऽपीतये॥ १२॥

पदार्थ:-(इह) एतस्मिन् व्यवहारे। (इन्द्राणीम्) इन्द्रस्य सूर्य्यस्य वायोर्वा शक्तिं सामर्थ्यमिव वर्तमानम् (उप) उपयोगे (ह्वये) स्वीकुर्वे (वरुणानीम्) यथा वरुणस्य जलस्येयं शान्तिमाधुर्य्यादिगुणयुक्ता शक्तिस्तथाभूतम् (स्वस्तये) अविनष्टा याभिपूजिताय सुखाय। स्वस्तीत्यविनाशिनामास्तिरभिपूजितः(निरु०३.२१) (अग्नायीम्) यथाग्नेरियं ज्वालास्ति तादृशीम्वृषाकप्यग्नि० (अष्टा०४.१.३७) अनेन डीप्प्रत्यय ऐकारादेशश्च। (सोमपीतये) सोमानामैश्वर्याणां पीति गो यस्मिन् तस्मै। सह सुपा इति समासः। अग्नाय्यग्नेः पत्नी तस्या एषा भवति। इहेन्द्राणीमुपह्वये० सा निगदव्याख्याता। (निरु०८.३४)॥१२॥ ___

अन्वयः-मनुष्या यथाहमिह स्वस्तये सोमपीतय इन्द्राणी वरुणानीमग्नायीमिव स्त्रियमुपह्वये तथा भवद्भिरपि सर्वेरनुष्ठेयम्॥१२॥

भावार्थ:-अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारःमनुष्यैरीश्वररचितानां पदार्थानां सकाशादविनश्वरसुखप्राप्तयेऽत्युत्तमाः स्त्रियः प्राप्तव्याः। नित्यमुद्योगेनान्योऽन्यं प्रीता विवाहं कुर्युनैव सदृशस्त्रीः पुरुषार्थ चान्तरा कस्यचित् किंचिदपि यथावत् सुखं सम्भवति॥१२॥ __

पदार्थ:-हे मनुष्य लोगो! जैसे हम लोग (इह) इस व्यवहार में (स्वस्तये) अविनाशी प्रशंसनीय सुख वा (सोमपीतये) ऐश्वर्यों का जिसमें भोग होता है, उस कर्म के लिये जैसा (इन्द्राणीम्) सूर्य (वरुणानीम्) वायु वा जल और (अग्नायीम्) अग्नि की शक्ति हैं, वैसी स्त्रियों को पुरुष और पुरुषों को स्त्री लोग (उपह्वये) उपयोग के लिये स्वीकार करें, वैसे तुम भी ग्रहण करो॥१२॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को उचित है कि ईश्वर के बनाये हुए पदार्थों के आश्रय से अविनाशी निरन्तर सुख की प्राप्ति के लिये उद्योग करके परस्पर प्रसन्नता युक्त स्त्री और पुरुष का विवाह करें, क्योंकि तुल्य स्त्री पुरुष और पुरुषार्थ के विना किसी मनुष्य को कुछ भी ठीक-ठीक सुख का सम्भव नहीं हो सकता।।१२।_

अत्र भूम्यग्नी मुख्य साधने स्त इत्युपदिश्यते

शिल्पविद्या में भूमि और अग्नि मुख्य साधन है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है