ऋग्वेद 1.21.4

 ग्रा सन्ता हवामह उपदं सर्वनं सुत

म्इन्द्राग्नी एह गच्छताम्॥४॥

ग्रा। सन्ता। हवामहे। उप। इदम्। सर्वनम्। सुतम्। इन्द्राग्नी इति। आ। इह। गच्छताम्॥४॥

पदार्थः-(उग्रा) तीव्रौ (सन्ता) वर्त्तमानौअत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारः(हवामहे) विद्यासिध्यर्थमुपदिशामः शृणुमश्च (उप) उपगमार्थे (इदम्) प्रत्यक्षम् (सवनम्) सुन्वन्ति निष्पादयन्ति पदार्थान् येन तत् (सुतम्) क्रियया निष्पादितं व्यवहारम् (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (आ) समन्तात् (इह) शिल्पक्रियाव्यवहारे (गच्छताम्) गमयतःअत्र लडथे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥४॥ ___

अन्वयः-वयं याविदं सुतं सवनमुपागच्छतामुपागमयतस्तावुग्रोग्रौ सन्तासन्ताविन्द्राग्नी इह हवामहे॥४॥

भावार्थ:-मनुष्यैर्यत इमौ प्रत्यक्षीभूतौ तीव्रवेगादिगुणौ शिल्पक्रियाव्यवहारे सर्वकार्योपयोगिनौ स्तस्तस्मादेतौ विद्यासिद्धये कार्येषु सदोपयोजनीयाविति॥४॥ __

पदार्थ:-हम लोग विद्या की सिद्धि के लिये जिन (उग्रा) तीव्र (सन्ता) वर्तमान (इन्द्राग्नी) वाय और अग्नि का (हवामहे) उपदेश वा श्रवण करते हैं, वे (इदम्) इस प्रत्यक्ष (सवनम्) अर्थात् जिससे पदार्थों को उत्पन्न और (सुतम्) उत्तम शिल्पक्रिया से सिद्ध किये हुए व्यवहार को (उपागच्छताम्) हमारे निकटवर्ती करते हैं॥४॥ ___

भावार्थ:-मनुष्यों को जिस कारण ये दृष्टिगोचर हुए तीव्र वेग आदि गुणवाले वायु और अग्नि शिल्पक्रियायुक्त व्यवहार में सम्पूर्ण कार्यों के उपयोगी होते हैं, इससे इनको विद्या की सिद्धि के लिये कार्यों में सदा संयुक्त करने चाहिये।।४।।

___पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है