ऋग्वेद 1.21.3

 ता मित्रस्य॒ प्रशस्तय इन्ग्निी ता हवामहे।

सोमपा सोमपीतये॥३॥

ता। मित्रस्यप्रऽस्तिये। इन्द्राग्नी इति। ता। हुवामहे। सोमऽपासोमऽपीतये॥ ३॥

पदार्थ:-(ता) तौअत्र त्रिषु सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (मित्रस्य) सर्वोपकारकस्य सर्वसहृदः (प्रशस्तये) प्रशंसनीयसुखाय (इन्द्राग्नी) वाय्वाग्नी (ता) तौ (हवामहे) स्वीकर्महे। अत्र 'हे' धातोर्बहुलं छन्दसि इति सम्प्रसारणम्। (सोमपा) यो सोमान् पदार्थसमूहान् रक्षतस्तौ (सोमपीतये) सोमानां पदार्थानां पीती रक्षणं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै॥३॥

अन्वयः-यथा विद्वांसो याविन्द्राग्नी मित्रस्य प्रशस्तय आह्वयन्ति तथैव ता तो वयमपि हवामहे यौ च सोमपौ सोमपीतय आह्वयन्ति ता तावपि वयं हवामहे ।।३।

भावार्थ:-अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यदा मनुष्या मित्रभावमाश्रित्य परस्परोपकाराय विद्यया वाय्वग्न्योः कार्येषु योजनरक्षणे कृत्वा पदार्थव्यवहारानुन्नयन्ति तदैव सुखिनो भवन्ति।।३।।

पदार्थ:-जैसे विद्वान् लोग वायु और अग्नि के गुणों को जानकर उपकार लेते हैं, वैसे हम लोग भी (ता) उन पूर्वोक्त (मित्रस्य) सबके उपकार करनेहारे और सब के मित्र के (प्रशस्तये) प्रशंसनीय सुखके लिये तथा (सोमपीतये) सोम अर्थात् जिस व्यवहार में संसारी पदार्थों की अच्छी प्रकार रक्षा होती है, उसके लिये (ता) उन (सोमपा) सब पदार्थों की रक्षा करनेवाले (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि को (हवामहे) स्वीकार करते हैं॥३॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जब मनुष्य मित्रपन का आश्रय लेकर एक दूसरे के उपकार के लिये विद्या से वायु और अग्नि को कार्यों में संयुक्त करके रक्षा के साथ पदार्थ और व्यवहारों की उन्नति करते हैं, तभी वे सुखी होते हैं।।३।

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है