ऋग्वेद 1.19.3

 ये महो रजसो विदुर्विश्वे देवासौ अद्रुहः

मरुद्भिरग्न आ गहि॥३॥

ये। महः। रजसः। विदुः। विश्वे। देवासःअदुहः। मुरुत्ऽभिःअग्ने। आ। गहि॥३॥

पदार्थः-(ये) मनुष्याः (महः) महसःअत्र सुपां सुलुग्० इति शसो लुक्। (रजसः) लोकान्यास्कमुनी रजःशब्दमेवं व्याख्यातवान्-रजो रजतेर्योती रज उच्यत उदकं रज उच्यते लोका रजांस्युच्यन्तेऽसृगहनी रजसी उच्यते। (निरु०४.१.९) (विदुः) जानन्ति (विश्वे) सर्वे (देवासः) विद्वांसः अत्र आज्जसेरसुग्० इत्यसुगागमः। (अद्रुहः) द्रोहरहिताः (मरुद्भिः) वायुभिः सह (अग्ने) स्वयंप्रकाश सर्वलोकप्रकाशकोऽग्निर्वा (आ) समन्तात् (गहि) गच्छ गच्छति वा॥३॥

अन्वयः-येऽहो विश्वेदेवासो विद्वांसो मरुद्भिरग्निना च संयुगे महो रजसो विदस्त एव सुखिनः स्युः। हे अग्ने! यस्त्वं मरुद्भिः सहागहि विदितो भवसि तेन त्वया योऽग्निर्निर्मित: मरुद्भिरेव कार्यार्थमागच्छति प्राप्तो भवति॥३॥

भावार्थ:-ये विद्वांसोऽग्निनाकृष्य प्रकाश्य मरुद्भिश्चेष्टयित्वा धारिता लोकाः सन्ति तान् सर्वान् विदित्वा कार्येषुपयोक्तुं जानन्ति ते सुखिनो भवन्तीति।।३॥

पदार्थ:-(ये) जो (अदुहः) किसी से द्रोह न रखनेवाले (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् लोग हैं, जो कि (मरुद्भिः) पवन और अग्नि के साथ संयोग में (महः) बड़े-बड़े (रजसः) लोकों को (विदुः) जानते हैं, वे ही सुखी होते हैं। हे (अग्ने) स्वयंप्रकाश होनेवाले परमेश्वर! आप (मरुद्भिः) पवनों के साथ (आगहि) विदित हूजिये, और जो आपका बनाया हुआ (अग्ने) सब लोकों का प्रकाश करनेवाला भौतिक अग्नि है, सो भी आपकी कृपा से (मरुद्भिः) पवनों के साथ कार्यसिद्धि के लिये (आगहि) प्राप्त होता है॥३॥

भावार्थ:-जो विद्वान् लोग अग्नि से आकर्षण वा प्रकाश करके तथा पवनों से चेष्टा करके धारण किये हुए लोक हैं, उनको जानकर उनसे कार्यों में उपयोग लेने को जानते हैं, वे ही अत्यन्त सुखी होते हैं।॥३॥

पुनः कीदृशास्ते मरुत इत्युपदिश्यते।

 फिर उक्त पवन किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है