ऋग्वेद 1.18.5

 त्वं तं ब्रह्मणस्पते सोम इन्द्रश्च मर्त्यम्।

दक्षिणा पात्वंहसः॥५॥३४॥

त्वम्। तम्। ब्रह्मणः। पते। सोमः। इन्द्रः। च। मर्त्यम्। दक्षिणा। पातु। अंहसः॥५॥

पदार्थः-(त्वम्) जगदीश्वरः (तम्) यज्ञानुष्ठातारम् (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्डस्य (पते) पालकेश्वर (सोमः) सोमलताद्योषधिसमूहः (इन्द्रः) वायुः (च) समुच्चये (मर्त्यम्) विद्वांसं मनुष्यम् (दक्षिणा) दक्षन्ते वर्धन्ते यया सा। अत्र दुदक्षिभ्यामिनन्। (उणा०२.४९) इतीनन्प्रत्ययः। (पातु) पाति। अत्र लडर्थे लोट। (अंहसः) पापात्। अत्र अम रोगे इत्यस्मात् अमेढुक् च। (उणा०४.२२०) अनेनासुन्प्रत्ययो हुगागमश्च॥५॥

अन्वयः-हे ब्रह्मणस्पते! त्वम॑हसो यं पासि तं मर्त्य सोम इन्द्रो दक्षिणा च पातु पाति॥१५॥

भावार्थ:-ये मनुष्या अधर्माद् दूरे स्थित्वा स्वेषां सुखवृद्धिमिच्छन्ति ते परमेश्वरमुपास्य सोममिन्द्रं दक्षिणां च युक्त्या सेवयन्तु॥५॥ ___

इति चतुस्त्रिशो वर्गः सम्पूर्णः॥

पदार्थ:-हे (ब्रह्मणस्पते) ब्रह्माण्ड के पालन करनेवाले जगदीश्वर ! (त्वम्) आप (अहंसः) पापों से जिसको (पातु) रक्षा करते हैं, (तम्) उस धर्मात्मा यज्ञ करनेवाले (मर्त्यम्) विद्वान् मनुष्य की (सोमः) सोमलता आदि ओषधियों के रस (इन्द्रः) वायु और (दक्षिणा) जिससे वृद्धि को प्राप्त होते हैं, ये सब (पातु) रक्षा करते हैं।॥५॥

भावार्थ:-जो मनुष्य अधर्म से दूर रहकर अपने सुखों के बढ़ाने की इच्छा करते हैं, वे ही परमेश्वर के सेवक और उक्त सोम, इन्द्र और दक्षिणा इन पदार्थों को युक्ति के साथ सेवन कर सकते हैं।॥५॥

यह चौंतीसवां वर्ग पूरा हुआ

अथेन्द्रशब्देन परमेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते।

अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से परमेश्वर के गुणों का उपदेश किया ह