ऋग्वेद 1.15.1

 अथ द्वादश→स्य पञ्चदशसूक्तस्य कण्वो मेधातिथिर्ऋषिः। ऋतवः; इन्द्रः; मरुतः; त्वष्टा;

अग्निः; इन्द्रः; मित्रावरुणौ; द्रविणोदाः; अश्विनौ; अग्निश्च देवताः। गायत्री छन्दः। षड्जः

स्वरः॥

तत्र प्रत्युतुं रसोत्पत्तिर्गमनं च भवतीत्युपदिश्यते

अब पंद्रहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में ऋतु-ऋतु में रस की उत्पत्ति और गति का वर्णन किया है

इन्द्र सोमं पिब ऋतुना त्वा विशन्त्विन्दवः

मत्सरासस्तदौकसः॥१॥

इन्द्र। सोम॑म्। पिबा ऋतुना। आ। त्वा॒ विशन्तु। इन्दवः। मत्सरासः। तत्ऽऔकसः॥१॥

पदार्थ:-(इन्द्र) कालविभागकर्ता सूर्यलोकः (सोमम्) ओषध्यादिरसम् (पिब) पिबति। अत्र व्यत्ययः, लडर्थे लोट् च। (ऋतुना) वसन्तादिभिः सह। अत्र जात्याख्यायामेकस्मिन् बहुवचनमन्यतरस्याम्। (अष्टा० १.२.५८) अनेन जात्यभिप्रायेणैकत्वम्। (आ) समन्तात् (त्वा) त्वां प्राणिनमिममप्राणिनं पदार्थं सूर्यस्य किरणसमूहं वा (विशन्तु) विशन्ति। अत्र लडर्थे लोट। (इन्दवः) जलानि उन्दन्ति आर्दीकुर्वन्ति पदार्थास्ते। अत्र उन्देरिच्चादेः। (उणा० १.१२) इत्युः प्रत्ययः, आदेरिकारादेशश्च। इन्दव इत्युदकनामसु पठितम्। (निघ०१.१२) (मत्सरासः) हर्षहेतवः (तदोकस:) तान्यन्तरिक्षवाय्वादीन्योकांसि येषां ते॥१॥ ___

अन्वयः-हे मनुष्या! यमिन्द्र ऋतुना सोमं पिब पिबति इमे तदोकसो मत्सरास इन्दवो जलरसा ऋतुना सह त्वा त्वां तं वा प्रतिक्षणमाविशन्त्वाविशन्ति॥१॥ __

भावार्थ:-अयं सूर्यः संवत्सरायनर्तुपक्षाहोरात्रमुहूर्त्तकलाकाष्टानिमेषादिकालविभागान् करोतिअत्राह मनुः- निमेषा दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कलाः। त्रिंशत्कला मुहूर्तः स्यादहोरात्रं तु तावतः॥ (मनु०५.६४) इति । तैस्सह सर्वौषधिभ्यो रसान् सर्वस्थानेभ्य उदकानि चाकर्षति तानि किरणैः सहान्तरिक्षे निवसन्ति। वायना सह गच्छन्त्यागच्छन्ति च।।१।। ___

पदार्थ:-हे मनुष्य! यह (इन्द्र) समय का विभाग करनेवाला सूर्य (ऋतुना) वसन्त आदि ऋतुओं के साथ (सोमम्) ओषधि आदि पदार्थों के रस को (पिब) पीता है, और ये (तदोकसः) जिनके अन्तरिक्ष वायु आदि निवास के स्थान तथा (मत्सरासः) आनन्द के उत्पन्न करनेवाले हैं, वे (इन्दवः) जलों के रस (ऋतुना) वसन्त आदि ऋतुओं के साथ (त्वा) इस प्राणी वा अप्राणी को क्षण-क्षण (आविशन्तु) आवेश करते हैं॥१॥

भावार्थ:-यह सूर्य वर्ष, उत्तरायण दक्षिणायन, वसन्त आदि ऋतु, चैत्र आदि बारहों महीने, शुक्ल और कृष्णपक्ष, दिन-रात, मुहूर्त जो कि तीस कलाओं का संयोग कला जो ३० (तीस) काष्ठा का संयोग, काष्टा जो कि अठारह निमेष का संयोग तथा निमेष आदि समय के विभागों को प्रकाशित करता हैजैसे कि मनुजी ने कहा है, और उन्हीं के साथ सब ओषधियों के रस और सब स्थानों से जलों को खींचता है, वे किरणों के साथ अन्तरिक्ष में स्थित होते हैं, तथा वायु के साथ आते-जाते हैं॥१॥

अथ ऋतुभिः सह मरुतः पदार्थानाकर्षन्ति पुनन्ति चेत्युपदिश्यते।

अब ऋतुओं के साथ पवन आदि पदार्थ सब को खींचते और पवित्र करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है