युक्ष्वा ह्यरुपी रथै हरितो देव रोहितः
ताभिर्देवाँ इहावह॥१२॥२७॥
युक्ष्वा हि। अझैषीः। रथे। हुरितः। देव। रोहितः। ताभिः। देवान्। दुह। आ। वह॥ १२॥
पदार्थ:-(युक्ष्व) योजय। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुकि श्नमभावः। (हि) यतः (अरुषी:) रक्तगुणा अरुष्यो गमनहेतवः। अत्र बाहुलकादुषन् प्रत्ययः। अन्यतो डीए। (अष्टा० ४.१.४०) अनेन डीए प्रत्ययः। वा च्छन्दसि। (अष्टा०६.१.१०६) अनेन जसः पूर्वसवर्णम्। (रथे) भूसमुद्रान्तरिक्षेषु गमनार्थे याने (हरित:) हरन्ति यास्ता ज्वाला: (देव) विद्वन् (रोहितः) रोहयन्त्यारोहयन्ति यानानि यास्ताःअत्र हृसृरुहियुषिभ्य इतिः। (उणा०१.९७) अनेन ‘रुह' धातोरितिः प्रत्ययः। (ताभिः) एताभिः (देवान्) दिव्यान् क्रियासिद्धान् व्यवहारान् (इह) अस्मिन् संसारे (आ) समन्तात् (वह) प्रापय।।१२।।
अन्वयः-हे देव विद्वंस्त्वं रथे रोहितो हरितोऽरुषीर्युक्ष्व ताभिरिह देवानावह प्रापय।।१२॥
भावार्थ:-विद्वद्भिरग्न्यादिपदार्थान् कलायन्त्रयानेषु संयोज्य तैरिहास्मिन्संसारे मनुष्याणां सुखाय दिव्याः पदार्थाः प्रकाशनीया इति।।१२।
अथ चतुर्दशस्यास्य सूक्तस्य विश्वेषां देवानां गुणप्रकाशनेन क्रियार्थसमुच्चयात् त्रयोदशसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्।
इदमपि सूक्तं सायणाचार्यादिभियूरोपदेशनिवासिभिर्विलसनादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्॥
इति चतुर्दशं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः॥
पदार्थ:-हे (देव) विद्वान् मनुष्य! तू (रथे) पृथिवी समुद्र और अन्तरिक्ष में जाने आने के लिये विमान आदि रथ में (रोहितः) नीची ऊँची जगह उतारने चढ़ाने (हरितः) पदार्थों को हरने (अरुषीः) लाल रंगयुक्त तथा गमन करानेवाली ज्वाला अर्थात् लपटों को (युक्ष्व) युक्त कर और (ताभिः) इनसे (इह) इस संसार में (देवान्) दिव्यक्रियासिद्ध व्यवहारों को (आवह) अच्छी प्रकार प्राप्त कर॥१२॥
भावार्थ:-विद्वानों को कला और विमान आदि यानों में अग्नि आदि पदार्थों को संयुक्त करके इनसे संसार में मनुष्यों के सुख के लिये दिव्य पदार्थों का प्रकाश करना चाहिये॥१२॥
सब देवों के गुणों के प्रकाश तथा क्रियाओं के समुदाय से इस चौदहवें सूक्त की सङ्गति पूर्वोक्त तेरहवें सूक्त के अर्थ के साथ जाननी चाहिये।
इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य्य आदि विद्वान् तथा यूरोपदेशनिवासी विलसन आदि ने विपरीत ही वर्णन किया है।
यह चौदहवां सूक्त और सत्ताईसवां वर्ग पूरा हुआ।।