ऋग्वेद 1.13.1

 अथ नवर्चस्यैकचत्वारिंशस्य सूक्तस्य घोरः कण्व ऋषिः। १-३, ७-९ वरुणमित्रार्यम्णः। ४-६

आदित्याश्च देवताः। १,४,५,८ गायत्री। २,३,६, विराड्गायत्री। ७,९ निवृद्गायत्री च छन्दः

___ षड्ज: स्वरः॥

अनेकैः सुरक्षितोऽपि कदाचिच्छत्रुणा पीड्यत इत्युपदिश्यते॥ अनेक वीरों से रक्षित भी राजा कभी शत्रु से पीड़ित होता ही है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है

यं रक्षन्ति प्रचैतो वरुणो मित्रो अर्यमा।

नू चित्स दभ्यते जनः॥१॥

यम्। रक्षन्ति। प्रऽचैतसः। वरुणः। मित्रः। अर्यमा। नु। चित्। सः। दुभ्यते। जनः॥१॥

पदार्थ:-(यम्) सभासेनेशं मनुष्यं (रक्षन्ति) पालयन्ति (प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं येषान्ते वरुणः) उत्तमगुणयोगेन श्रेष्ठत्वात् सर्वाध्यक्षत्वार्हः (मित्रः) सर्वसुहृत् (अर्यमा) पक्षपातं विहाय न्यायं कर्तुं समर्थः (नु) सद्यः। अत्र ऋचि तुनु० इति दीर्घः(चित्) एव (सः) रक्षितः (दभ्यते) हिंस्यते (जनः) प्रजासेनास्थो मनुष्यः॥१॥

अन्वयः-प्रचेतसो वरुणो मित्रोऽर्यमा चैते यं रक्षन्ति स चिदपि कदाचिन्नु दभ्यते॥१॥

भावार्थ:-मनुष्यैः सर्वोत्कृष्टः सेनासभाध्यक्षः सर्वमित्रो दूतोऽध्यापक उपदेष्टा धार्मिको न्यायाधीशश्च कर्तव्यः। तेषां सकाशाद्रक्षणदीनि प्राप्य सर्वान् शत्रून् शीघ्रं हत्वा चक्रवर्तिराज्यं प्रशास्य सर्वहितं सम्पादनीयम्। नात्र केनचिन्मृत्युना भेतव्यं कुत सर्वेषां: जातानां पदार्थानां ध्रुवो मृत्युरित्यतः॥१॥

पदार्थः-(प्रचेतसः) उत्तम ज्ञानवान् (वरुणः) उत्तम गुण वा श्रेष्ठपन होने से सभाध्यक्ष होने योग्य (मित्रः) सब का मित्र (अर्यमा) पक्षपात छोड़ के न्याय करने को समर्थ ये सब (यम्) जिस मनुष्य वा राज्य तथा देश की (रक्षन्ति) रक्षा करते हों (स:) (चित्) वह भी (जन:) मनुष्य आदि (नु) जल्दी सब शत्रुओं से कदाचित् (दभ्यते) मारा जाता है।।१।

भावार्थ:-मनुष्यों को उचित है कि सब से उत्कृष्ट, सेना सभाध्यक्ष, सब का मित्र, दूत, पढ़ाने वा उपदेश करने वाले धार्मिक मनुष्य को न्यायाधीश करें; तथा उन विद्वानों के सकाश से रक्षा आदि को प्राप्त हो, सब शत्रुओं को शीघ्र मार और चक्रवर्त्ति राज्य का पालन करके सबके हित को सम्पादन करें, किसी को भी मृत्यु से भय करना योग्य नहीं है, क्योंकि जिनका जन्म हुआ है, उनका मृत्यु अवश्य होता है। इसलिये मृत्यु से डरना मूों का काम है।।१।

स संरक्षितस्सन् कि प्राप्नोतीत्युपदिश्यते।।

वह रक्षा किया हुआ किसको प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।