ताहं शूर रातिभिः प्रत्यायं सिधुमावदन्।
उपातिष्ठन्त गिर्वणो विदुष्टे तस्य॑ कारवः॥६॥
तवा अ॒हम्। शूर। रातिऽभिः। प्रति। आयम्। सिधुम्। आऽवदन्। उप। अतिष्ठन्त। गिर्वणः। विदुः। ते। तस्या कारवः॥६॥
पदार्थः-(तव) बलपराक्रमयुक्तस्य (अहम्) सर्वो जनः (शूर) धार्मिक दुष्टनिवारक विद्याबलपराक्रमवन् सभाध्यक्ष! (रातिभिः) अभयादिदानैः (प्रति) प्रतीतार्थे क्रियायोगे (आयम्) प्राप्नुयाम्। अत्र लिडर्थे लङ्। (सिधुम्) स्यन्दते प्रस्रवति सुखानि समुद्र इव गम्भीरस्तम् (आवदन्) समन्तात् ब्रुवन्सन् (उप) सामीप्यार्थे (अतिष्ठन्त) स्थिरा भवेयुः। अत् लिङर्थे लङ्। (गिर्वणः) गीर्भिर्वन्द्यते सेव्यते जनैस्तत्सम्बुद्धौ (विदुः) जानन्ति (ते) तव (तस्य) राज्यस्य युद्धस्य शिल्पस्य वा (कारवः) ये कार्याणि कुर्वन्ति ते॥६॥
अन्वयः-हे शूर! ये तव रातिभिस्त्वां सिन्धुमिवावदन् सन्नहं प्रत्यायम्। हे गिर्वणस्तव तस्य च कारवस्त्वां शूरं विदुरुपातिष्ठन्त ते सदा सुखिनो भवन्ति॥६॥
भावार्थ:-अत्र लुप्तोपमालङ्कारौ स्तः। ईश्वरः सर्वानाज्ञापयति-मनुष्यैर्धार्मिकस्य शूरस्य प्रशंसितस्य सभाध्यक्षस्य वा सेनाध्यक्षस्य मनुष्याभयदानेन समुद्रस्य जन्तव इवाश्रयेण राज्यका-णि सम्यग् विदित्वा संसाधनीयानि दुःखनिवारणेन सुखाय परस्परमुपस्थितिश्च कार्येति॥६॥
पदार्थ:-हे (शूर) धार्मिक घोर युद्ध से दुष्टों की निवृत्ति करने तथा विद्या बल पराक्रमवाले वीर पुरुष! जो (तव) आपके निर्भयता आदि दानों से मैं (सिधुम्) समुद्र के समान गम्भीर वा सुख देनेवाले आपको (आवदन्) निरन्तर कहता हुआ (प्रत्यायम्) प्रतीत करके प्राप्त होऊ। हे (गिर्वणः) मनुष्यों की स्तुतियों से सेवन करने योग्य! जो (ते) आपके (तस्य) युद्ध राज्य वा शिल्पविद्या के सहायक (कारव:) कारीगर हैं, वे भी आप को शूरवीर (विदुः) जानते तथा (उपातिष्ठन्त) समीपस्थ होकर उत्तम काम करते हैं, वे सब दिन सुखी रहते हैं।।६॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार हैं। ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि-जैसे मनुष्यों को धार्मिक शूर प्रशंसनीय सभाध्यक्ष वा सेनापति मनुष्यों के अभयदान से निर्भियता को प्राप्त होकर जैसे समुद्र के गुणों को जानते हैं, वैसे ही उक्त पुरुष के आश्रय से अच्छी प्रकार जानकर उनको प्रसिद्ध करना चाहिये तथा दुःखों के निवारण से सब सुखों के लिये परस्पर विचार भी करना चाहिये॥६॥
पुनस्तद्गुणा उपदिश्यन्ते
फिर भी अगले मन्त्र में सूर्य के गुणों का उपदेश किया है