ऋग्वेद 1.2.6

 वायविन्द्रश्च सुन्वत आ या॑त॒मुप॑ निष्कृतम्।

मक्ष्वित्था धिया नरा॥६॥

वायो इति। इन्द्रः। चसुन्व॒तःआ। यातम्। उप। निःऽकृतम्। मक्षु। इत्था। धिया। नरा॥६॥

पदार्थ:-(वायो) सर्वान्तर्यामिन्नीश्वर! (इन्द्रश्च) अन्तरिक्षस्थः सूर्यप्रकाशो वायुर्वा । इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा। (अष्टा०५.२.९३) इति सूत्राशयादिन्द्रशब्देन जीवस्यापि ग्रहणम्। प्राणो वै वायुः। (श० ब्रा०८.१.७.२) अत्र वायुशब्देन प्राणस्य ग्रहणम्। (सुन्वतः) अभिनिष्पादयतः (आ) समन्तात् (यातम्) प्राप्नुतः। अत्र व्यत्ययः। (उप) सामीप्यम् (निष्कृतम्) कर्मणां फलं च (मक्षु) त्वरितगत्या। मक्ष्विति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघ०२.१५) (इत्था) धारणपालनवृद्धिक्षयहेतुना। था हेतौ च छन्दसि। (अष्टा०५.२.२६) इति थाप्रत्ययः। (धिया) धारणावत्या बुद्धया कर्मणा वा। धीरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) कर्मनामसु च। (निघं० २.१) (नरा) नयनकर्तारौ। सुपां सुलुगित्याकारादेशः॥६॥

अन्वयः-हे वायो! नरा नराविन्द्रवायू मश्वित्था यथा सुन्वतस्तथा तो धिया निष्कृतमुपायातमुपायातः॥६॥ भावार्थ:-यथाऽत्र ब्रह्माण्डस्थाविन्द्रवायू सर्वप्रकाशकपोषको स्तः, एवं शरीरे जीवप्राणावपि, परन्तु सर्वत्रेश्वराधारापेक्षास्तीति॥६॥

पदार्थः-(वायो) हे सब के अन्तर्यामी ईश्वर ! जैसे आपके धारण किये हुए (नरा) संसार के सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले (इन्द्रश्च) अन्तरिक्ष में स्थित सूर्य का प्रकाश और पवन हैं, वैसे ये'इन्द्रिय०' इस व्याकरण के सूत्र करके इन्द्र शब्द से जीव का, और 'प्राणो०' इस प्रमाण से वायु शब्द करके प्राण का ग्रहण होता है-(मक्षु) शीघ्र गमन से (इत्या) धारण, पालन, वृद्धि और क्षय हेतु से सोम आदि सब ओषधियों के रस को (सुन्वतः) उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार (नरा) शरीर में रहनेवाले जीव और प्राणवायु उस शरीर में सब धातुओं के रस को उत्पन्न करके (इत्था) धारण, पालन, वृद्धि और क्षय हेतु से (मक्ष) सब अङ्गों को शीघ्र प्राप्त होकर (धिया) धारण करनेवाली बुद्धि और कर्मों से (निष्कृतम्) कर्मों के फलों को (आयातमुप) प्राप्त होते हैं॥६॥

भावार्थ:-ब्रह्माण्डस्थ सूर्य और वायु सब संसारी पदार्थों को बाहर से तथा जीव और प्राण शरीर के भीतर के अङ्ग आदि को सब प्रकाश और पुष्ट करनेवाले हैं, परन्तु ईश्वर के आधार की अपेक्षा सब स्थानों में रहती है॥६॥ ___

पुनरेतौ नामान्तरेणोपदिश्यते।

ईश्वर पूर्वोक्त सूर्य और वायु को दूसरे नाम से अगले मन्त्र में स्पष्ट करता है