ऋग्वेद 1.3.2

 अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया

धिष्ण्या व तं गिरः॥२॥

अश्विना। पुरुऽदंससा। नरा। शवीरया। धिया। धिष्ण्या। वनतम्। गिरः॥२॥

पदार्थ:-(अश्विना) अग्निजले (पुरुदंससा) पुरूणि बहुनि दंसांसि शिल्पविद्यार्थानि कर्माणि याभ्यां तौ। दंस इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं० २.१) (नरा) शिल्पविद्याफलप्रापको (धिष्ण्या) यौ यानेषु वेगादीनां तीव्रतासंवपने कर्त्तव्ये धृष्टौ (शवीरया) वेगवत्या। शव गतावित्यस्माद्धातो रन्प्रत्यये टापि च शवीरेति सिद्धम्। (धिया) क्रियया प्रज्ञया वा। धीरिति कर्मप्रज्ञयो मसु वाविन्द्रश्चेत्यत्रोक्तम्। (वनतम्) यो सम्यग्वाणीसेविनो स्तः। अत्र व्यत्ययः। (गिरः) वाचः॥२॥ __

अन्वयः-हे मनुष्या! यूयं यौ पुरुदंससौ नरौ धिष्ण्यावश्विनौ शवीरया धिया गिरो वनतं वाणीसेविनौ स्तः, तो सेवयत।।२।

भावार्थ:-अत्राप्यग्निजलयोर्गुणानां प्रत्यक्षकरणाय मध्यमपुरुषप्रयोगत्वात् सर्वेः शिल्पिभिस्तो तीव्रवेगवत्या मेधया पुरुषार्थेन च शिल्पविद्यासिद्धये सम्यक् सेवनीयो स्तः। ये शिल्पविद्यासिद्धिं चिकीर्षन्ति तैस्तद्विद्या हस्तक्रियाभ्यां सम्यक् प्रसिद्धीकृत्योक्ताभ्यामश्विभ्यामुपयोगः कर्त्तव्य इति। सायणाचार्यादिभिर्मध्यमपुरुषस्य निरुक्तोक्तं विशिष्टनियमाभिप्रायमविदित्वाऽस्य मन्त्रस्यार्थोऽन्यथा वर्णितः । तथैव यूरोपवासिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चेति।।२॥ __

_ पदार्थ:-हे विद्वानो! तुम लोग (पुरुदंससा) जिनसे शिल्पविद्या के लिये अनेक कर्म सिद्ध होते हैं (धिष्ण्या) जो कि सवारियों में वेगादिकों की तीव्रता के उत्पन्न करने में प्रबल (नरा) उस विद्या के फल को देनेवाले और (शवीरया) वेग देनेवाली (धिया) क्रिया से कारीगरी में युक्त करने योग्य अग्नि और जल हैं, वे (गिरः) शिल्पविद्यागुणों की बतानेवाली वाणियों को (वनतम्) सेवन करनेवाले हैं, इसलिये इनसे अच्छी प्रकार उपकार लेते रहो।।२।भावार्थ:-यहां भी अग्नि और जल के गुणों को प्रत्यक्ष दिखाने के लिये मध्यम पुरुष का प्रयोग हैइससे सब कारीगरों को चाहिये कि तीव्र वेग देनेवाली कारीगरी और अपने पुरुषार्थ से शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये उक्त अश्वियों की अच्छी प्रकार से योजना करें। जो शिल्पविद्या को सिद्ध करने की इच्छा करते हैं, उन पुरुषों को चाहिये कि विद्या और हस्तक्रिया से उक्त अश्वियों को प्रसिद्ध कर के उन से उपयोग लेवें

सायणाचार्य आदि तथा विलसन आदि साहबों ने मध्यम पुरुष के विषय में निरुक्तकार के कहे हुए विशेष अभिप्राय को न जान कर इस मन्त्र के अर्थ का वर्णन अन्यथा किया है।॥२॥

पुनस्तावश्विनौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

फिर भी वे अश्वि किस प्रकार के है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है