ऋग्वेद 1.3.1

 अथास्य द्वादशर्चस्य तृतीयसूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। १-३ अश्विनौ; ४-६ इन्द्रः; ७-९

विश्वेदेवाः; १०-२२ सरस्वती देवताः। १,३, ५-१०, १२ गायत्री; २ निद्गायत्री; ४,११

पिपीलिकामध्यानिचूद्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥

तत्रादावश्विनावुपदिश्यते।

अब तृतीय सूक्त का प्रारम्भ करते हैं। इसके आदि के मन्त्र में अग्नि और जल अश्वि नाम से लिया है

अश्विना यज्चरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती।

पुरुभुजा चनस्यतम्॥१॥

अविना। यज्वरीः। इषः। द्रवत्ऽपाणी। शुभःऽपी। पुरुऽभुजा। चनस्यतम्॥१॥

पदार्थः- (अश्विना) जलाग्नी। अत्र सुपामित्याकारादेशःया सुरथा रथीतोभा दे॒वा दिविस्पृशाअश्विना ता हवामहे॥ (ऋ०१.२२.२) नहि वामस्ति दूरके यत्रा रथेन गच्छथः। (ऋ०१.२२.४) वयं यौ सुरथौ शोभना रथा याभ्यां तो, रथीतमा भूयांसो रथा विद्यन्ते ययोस्तौ रथी, अतिशयेन रथी रथीतमौ देवी शिल्पविद्यायां दिव्यगुणप्रकाशको, दिविस्पृशा विमानादियानैः सूर्यप्रकाशयुक्तेऽन्तरिक्षे मनुष्यादीन् स्पर्शयन्तौ, उभा उभौ ता तौ हवामहे गृह्णीमः। यत्र मनुष्या वां तयोरश्विनोः साधिपित्वाचलितयोः सम्बन्धयुक्तेन हि यतो गच्छन्ति तत्र गृहं विद्याधिकरणं दूरं नैव भवतीति यावत्। अथातो ह्युस्थाना देवतास्तासामश्विनौ प्रथमागामिनौ भवतोऽश्विनौ यद्धयश्नुवाते सर्वं रसेनान्यो ज्योतिषाऽन्योऽश्वैरश्विनावित्यौर्णवाभस्तत्कावश्विनौ द्यावापृथिव्यावित्यकेऽहोरात्रावित्येके सूर्याचन्द्रमसावित्येके ..... ... हि मध्यमो ज्योतिर्भाग आदित्यः। (निरु० १२.१) तथाऽश्विनौ चापि भर्तारौ जभरी भर्तारावित्यर्थस्तुर्फरीतु हन्तारौ। (निरु० १३.५) तयोः काल ऊर्ध्वमर्द्धरात्रात् प्रकाशीभावस्यानुविष्टम्भमनु तमो भागः। (निरु० १२.१)

(अथातो०) अत्र द्युस्थानोक्तत्वात् प्रकाशस्थाः प्रकाशयुक्ताः सूर्याग्निविद्युदादयो गृह्यन्ते, तत्र यावश्विनौ द्वौ द्वौ सम्प्रयुज्यते यौ च सर्वेषां पदार्थानां मध्ये गमनशीलौ भवतः। तयोर्मध्यादस्मिन् मन्त्रेऽश्विशब्देनाग्निजले गृह्यते। कुतः? यद्यस्माज्जलमश्वैः स्वकीयवेगादिगुणे रसेन सर्वं जगद्व्यश्नुते व्याप्तवदस्ति। तथाऽन्योऽग्निः स्वकीयैः प्रकाशवेगादिभिर श्वैः सर्वं जगद्व्यश्नुते तस्मादग्निजलयोरश्विसंज्ञा जायते। तथैव स्वकीयस्वकीयगुणैावापृथिव्यादीनां द्वन्द्वानामप्यश्विसंज्ञा भवतीति विज्ञेयम्। शिल्पविद्याव्यवहारे यानादिषु युक्त्या योजितो सर्वकलायन्त्रयानधारको यन्त्रकलाभिस्ताडितो चेत्तदाहननेन गमयितारौ च तुर्फरीशब्देन यानेषु शीघ्रं वेगादिगुणप्रापयितारौ भवतः___

अश्विनाविति पदनामस् पठितम्। (निघं०५.६) अनेनापि गमनप्राप्तिनिमित्ते अश्विनौ गृह्यते(यज्वरी:) शिल्पविद्यासम्पादनहेतून् (इषः) विद्यासिद्धये या इष्यन्ते ताः क्रियाः (द्रवत्पाणी) द्रवच्छीघ्रवेगनिमित्ते पाणी पदार्थविद्याव्यवहारा ययोस्तौ (शुभस्पती) शुभस्य शिल्पकार्यप्रकाशस्यपालको। 'शुभ शुभ दीप्तौ' एतस्य रूपमिदम्। (पुरुभुजा) पुरूणि बहूनि भुजि भोक्तव्यानि वस्तूनि याभ्यां तौ। पुर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघ०३.१) भुगिति क्विप्प्रत्ययान्तः प्रयोगः। सम्पदादिभ्यः क्विए। रोगाख्यायां। (अष्टा०३.३.१०८) इत्यस्य व्याख्याने। (चनस्यतम्) अन्नवदेतौ सेव्येताम्। चायतेरन्ने ह्रस्वश्च। (उणा०४.२००) अनेनासुन् प्रत्ययान्ताच्च नस्शब्दात् क्यच्प्रत्ययान्तो नामधातोर्लोटि मध्यमस्य द्विवचनेऽयं प्रयोगः॥१॥

अन्वयः-हे विद्वांसो! युष्माभिवत्पाणी शुभस्पती पुरुभुजावश्विनौ यज्वरीरिषश्च चनस्यतम्॥१।। भावार्थ:-अत्रेश्वरः शिल्पविद्यासाधनमुपदिशति। यतो मनुष्याः कलायन्त्ररचनेन विमानादियानानि सम्यक् साधयित्वा जगति स्वोपकारपरोपकारनिष्पादनेन सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयुः॥१॥

पदार्थ:-हे विद्या के चाहनेवाले मनुष्यो! तुम लोग (द्रवत्पाणी) शीघ्र वेग का निमित्त पदार्थविद्या के व्यवहारसिद्धि करने में उत्तम हेतु (शुभस्पती) शुभ गुणों के प्रकाश को पालने और (पुरुभुजा) अनेक खाने-पीने के पदार्थों के देने में उत्तम हेतु (अश्विना) अर्थात् जल और अग्नि तथा (यज्वरी:) शिल्पविद्या का सम्बन्ध करानेवाली (इषः) अपनी चाही हुई अन्न आदि पदार्थों की देने वाली कारीगरी की क्रियाओं को (चनस्यतम्) अन्न के समान अति प्रीति से सेवन किया करो।

अब ‘अश्विनी' शब्द के विषय में निरुक्त आदि के प्रमाण दिखलाते हैं-हम लोग अच्छी अच्छी सवारियों को सिद्ध करने के लिये (अश्विना) पूर्वोक्त जल और अग्नि को कि जिनके गुणों से अनेक सवारियों की सिद्धि होती है, तथा (देवी) जो कि शिल्पविद्या में अच्छे-अच्छे गुणों के प्रकाशक और सूर्य के प्रकाश से अन्तरिक्ष में विमान आदि सवारियों से मनुष्यों को पहुँचानेवाले होते हैं, (ता) उन दोनों को शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये ग्रहण करते हैं। मनुष्य लोग जहां-जहां साधे हुए अग्नि और जल के सम्बन्धयुक्त रथों से जाते हैं, वहां सोमविद्यावाले विद्वानों का विद्याप्रकाश निकट ही है। ___

(अथा०) इस निरुक्त में जो कि घुस्थान शब्द है, उससे प्रकाश में रहने वाले और प्रकाश से युक्त सूर्य्य अग्नि जल और पृथिवी आदि पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं, उन पदार्थों में दो-दो के योग को 'अश्वि' कहते हैं, वे सब पदार्थों में प्राप्त होनेवाले हैं, उनमें से यहां अश्वि शब्द करके अग्नि और जल का ग्रहण करना ठीक है, क्योंकि जल अपने वेगादि गुण और रस से तथा अग्नि अपने प्रकाश और वेगादि अश्वों से सब जगत् को व्याप्त होता है। इसी से अग्नि और जल का अश्वि नाम है। इसी प्रकार अपने-अपने गुणों से पृथिवी आदि भी दो-दो पदार्थ मिलकर अश्वि कहाते हैं।

जबकि पूर्वोक्त अश्वि धारण और हनन करने के लिये शिल्पविद्या के व्यवहारों अर्थात् कारीगरियों के निमित्त विमान आदि सवारियों में जोड़े जाते हैं, तब सब कलाओं के साथ उन सवारियों के धारण करनेवाले, तथा जब उक्त कलाओं से ताड़ित अर्थात् चलाये जाते हैं, तब अपने चलने से उन सवारियों को चलाने वाले होते हैं, उन अश्वियों को 'तुर्फरी' भी कहते हैं, क्योकि तुर्फरी शब्द के अर्थ सेवे सवारियों में वेगादि गुणों के देनेवाले समझे जाते हैं। इस प्रकार वे अश्वि कलाघरों में संयुक्त किये हुए जल से परिपूर्ण देखने योग्य महासागर हैं। उनमें अच्छी प्रकार जाने-आने वाली नौका अर्थात् जहाज आदि सवारियों में जो मनुष्य स्थित होते हैं। उनके जाने-आने के लिये होते हैं।॥१॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में ईश्वर ने शिल्पविद्या को सिद्ध करने का उपदेश किया है, जिससे मनुष्य लोग कलायुक्त सवारियों को बनाकर संसार में अपना तथा अन्य लोगों के उपकार से सब सुख पावें।।१॥

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

फिर वे अश्वि किस प्रकार के हैं, सो उपदेश अगले मन्त्र में किया हैअश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया