ऋग्वेद 1.7.8

 वृां यूथेव वंसंगः कृष्टीरियोजसा।

ईशानो अप्रतिष्कुतः॥८॥

वृषा। यूथाऽईवा वंसंगः। कृष्टीः। यति। ओजसा। ईशानः। अप्रतिष्कुतः॥८॥

पदार्थ:-(वृषा) शुभगुणवर्षणकर्ता (यूथेव) गोसमूहान् वृषभ इवतिथपृष्ठ० (उणा०२.१२) (वंसगः) वंसं धर्मसेविनं संविभक्तपदार्थान् गच्छतीति। (कृष्टी:) मनुष्यानाकर्षणादिव्यवहारान्वा (इयर्ति) प्राप्नोति (ओजसा) बलेन (ईशानः) ऐश्वर्यवान् ऐश्वर्यहेतुः सृष्टेः कर्त्ता प्रकाशको वा (अप्रतिष्कुतः) सत्यभावनिश्चयाभ्यां याचितोऽनुग्रहीतां स्वकक्षां विहायेतस्ततो ह्यचलितो वा।।८॥ अन्वयः-वंसगो वृषा यूथानीवाप्रतिष्कृत ईशानो वृषेश्वरः सूर्य्यश्चौजसा बलेन कृष्टीधर्मात्मनो मनुष्यान् आकर्षणादिव्यवहारान् वेयर्ति प्राप्नोति।८।

भावार्थ:-अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्या एवेश्वरं प्राप्तुं समर्थास्तेषां ज्ञानोन्नतिकरणस्वभाववत्त्वात्। धर्मात्मनो मनुष्यानेव प्राप्तुमीश्वरस्य स्वभाववत्त्वाद्याथैतं प्राप्नुवन्ति तथेश्वरेण नियोजितत्वादयं सूर्योऽपि स्वसंनिहितान् लोकानाकर्षितुं समर्थोऽस्तीति।।८।।

पदार्थ:-जैसे (वृषा) वीर्य्यदाता रक्षा करनेहारा (वंसगः) यथायोग्य गाय के विभागों को सेवन करनेहारा बैल (ओजसा) अपने बल से (यूथेव) गाय के समूहों को प्राप्त होता है, वैसे ही (वंसगः) धर्म के सेवन करनेवाले पुरुष को प्राप्त होने और (वृषा) शुभगुणों की वर्षा करनेवाला (ईशानः) ऐश्वर्यवान् जगत् का रचनेवाला परमेश्वर अपने (ओजसा) बल से (कृष्टी:) धर्मात्मा मनुष्यों को तथा (वंसगः) अलग-अलग पदार्थों को पहुंचाने और (वृषा) जल वर्षानेवाला सूर्य्य (ओजसा) अपने बल से (कृष्टीः) आकर्षण आदि व्यवहारों को (इयर्त्ति) प्राप्त होता है॥८॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमा और श्लेषालङ्कार है। मनुष्य ही परमेश्वर को प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि वे ज्ञान की वृद्धि करने के स्वभाव वाले होते हैं। और धर्मात्मा ज्ञानवाले मनुष्यों का परमेश्वर को प्राप्त होने का स्वभाव है। तथा जो ईश्वर ने रचकर कक्षा में स्थापन किया हुआ सूर्य्य है, वह अपने सामने अर्थात् समीप के लोकों को चुम्बक पत्थर और लोहे के समान खींचने को समर्थ रहता है॥८॥

ईश्वर एव सर्वथा सहायकार्य्यस्तीत्युपदिश्यते

सब प्रकार से सब का सहायकारी परमेश्वर ही है, इस विषय को अगले मन्त्र में प्रकाश किया है