ऋग्वेद 1.6.7

 इन्द्रेण सं हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा

मन्दू संमानवर्चसा॥७॥

इन्द्रेणा सम्। हि। दृक्षसे। संऽजग्मानःअबिभ्युषा। मन्दू इति। समानऽवर्चसा।। ७॥

पदार्थ:-(इन्द्रेण) परमेश्वरेण सूर्येण सह वा (सम्) सम्यक् (हि) निश्चये (दृक्षसे) दृश्यते। अत्र लडर्थे लेटमध्यमैकवचनप्रयोगः। अनित्यमागमशासनमिति वचनप्रामाण्यात् सृजिदृशोरित्यम् न भवति। (संजगमान:) सम्यक् सङ्गतः (अबिभ्युषा) भयनिवारणहेतुना किरणसमूहेन वायुगणेन सह वा (मन्दू) आनन्दितावानन्दकारको। मन्दू इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.१) (समानवर्चसा) समानं तुल्यं व! दीप्तियोस्तौ। यास्काचार्येणायं मन्त्र एवं व्याख्यातः-इन्द्रेण सं हि दृश्यसे संजग्मानो अबिभ्युषा गणेन मन्दू मदिष्णू युवास्थोऽपि वा मन्दुना तेनेति स्यात्समानवर्चसेत्येतेन व्याख्यातम्। (निरु०४.१२॥७॥

अन्वयः-अयं वायुरबिभ्युपेन्द्रेणैव संजग्मानः सन् तथा वायुना सह सूर्यश्च सङ्गत्य दृश्यसे दृश्यते दृष्टिपथमागच्छति हि यतस्तौ समानवर्चसौ वर्तेते तस्मात्सर्वेषां मन्दू भवतः॥७॥

भावार्थ:-ईश्वरेणाभिव्याप्य स्वसत्तया सूर्य्यवाय्वादयः सर्वे पदार्था उत्पाद्य धारिता वर्त्तन्ते। एतेषां मध्य खलु सूर्य्यवाय्वोर्धारणाकर्षणप्रकाशयोगेन सह वर्तमानाः सर्वे पदार्थाः शोभन्ते। मनुष्यैरेते विद्योपकारं ग्रहीतुं योजनीयाः।।

'इदम्महदाश्चर्यं यद्बहुवचनस्यैकवचने प्रयोगः कृतोऽस्तीति। यच्च निरुक्तकारेण द्विवचनस्य स्थान एकवचनप्रयोगः कृतोऽस्त्यतोऽसङ्गतोऽस्ति।' इति च मोक्षमूलरकल्पना सम्यङ् न वर्त्तते। कुतः, व्यत्ययो बहुलम्, सुप्तिडुपग्रह० इति वचनव्यत्ययविधायकस्य शास्त्रस्य विद्यमानत्वात्। तथा निरुक्तकारस्य व्याख्यानं समञ्जसमस्ति। कुतः, मन्दू इत्यत्र सुपां सुलुग्० इति पूर्वसवर्णादेशविधायकस्य शास्त्रस्य विद्यमानत्वात्।।७॥ ____

पदार्थ:-यह वायु (अबिभ्युषा) भय दूर करनेवाली (इन्द्रेण) परमेश्वर की सत्ता के साथ (संजग्मानः) अच्छी प्रकार प्राप्त हुआ, तथा वायु के साथ सूर्य्य (संदृक्षसे) अच्छी प्रकार दृष्टि में आताहै, (हि) जिस कारण ये दोनों (समानवर्चसा) पदार्थों के प्रसिद्ध बलवान् हैं, इसी से वे सब जीवों को (मन्दू) आनन्द के देनेवाले होते हैं॥७॥

भावार्थ:-ईश्वर ने जो अपनी व्याप्ति और सत्ता से सूर्य और वायु आदि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, इन सब पदार्थों के बीच में से सूर्य और वायु ये दोनों मुख्य हैं, क्योंकि इन्हीं के धारण आकर्षण और प्रकाश के योग से सब पदार्थ सुशोभित होते हैं। मनुष्यों को चाहिये कि उन्हें पदार्थविद्या से उपकार लेने के लिये युक्त करें_

'यह बड़ा आश्चर्य है कि बहुवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग किया गया, तथा निरुक्तकार ने द्विवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग माना है, सो असङ्गत है।' यह भी मोक्षमूलर साहब की कल्पना ठीक नहीं, क्योंकि 'व्यत्ययो ब०; सुप्तिडुपग्रह०' व्याकरण के इस प्रमाण से वचनव्यत्यय होता है। तथा निरुक्तकार का व्याख्यान सत्य है, क्योंकि 'सुपा सु०' इस सूत्र से ‘मन्दू' इस शब्द में द्विवचन को पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश हो गया है॥७॥

कथं पूर्वोक्तो नित्यवर्तमानो व्यवहारोऽस्तीत्युपदिश्यते।

पूर्वोक्त व्यवहार किस प्रकार से नित्य वर्तमान है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया