ऋग्वेद 1.6.5

 वीळु चिदारुजत्नुभिर्गुहां चिदिन्द्र वह्निभिः।

अविन्द उस्रिया अनु॥५॥११॥

वीर्छ। चित्। आरुजत्नुऽभिः। गुहा। चित्। इन्द्र। वह्निभिः। अविन्दः। उस्रियाः। अनु॥५॥

पदार्थ:-(वीळु) दृढं बलम्। वीळु इति बलनामसु पठितम्। (निघ०२.९) (चित्) उपमार्थे। (निरु०१.४) (आरुजत्नुभिः) समन्ताद् भञ्जद्भिः। आयूर्वाद् रुजो भङ्ग इत्यस्माद्धातोरोणादिकः क्त्नुः प्रत्ययः। (गुहा) गुहायामन्तरिक्षे। सुपां सुलुगिति डेर्लुक्। गुहा गूहतेः। (निरु०१३.८) (चित्) एवार्थे। चिदिदं पूजायाम्। (निरु०१.४) (इन्द्रः) सूर्य्यः (वह्निभिः) वोढभिर्मरुद्भिः सह। वहिश० (उणा०४.५३) इति वहेरौणादिको निः प्रत्ययः। (अविन्दः) लभते। पूर्ववदत्र पुरुषव्यत्ययः, लडथै लोट च। (उस्रियाः) किरणाः। अत्र इयाडियाजीकाराणामुपसंख्यानमित्यनेन शस: स्थाने डियाजादेशः। उप्रेति रश्मिनामसु पठितम्। (निघ०१.५) (अनु) पश्चादर्थे।।५॥ __

अन्वयः-चिद्यथा मनुष्याः स्वसमीपस्थान् पदार्थानुपर्योधश्च नयन्ति, तथैवेन्द्रोऽयं सूर्यो वीळुबलेनोस्त्रियाः क्षेपयित्वा पदार्थान् विन्दतेऽनु पश्चात्तान् भित्त्वाऽऽरुजत्नुभिर्वह्निभिर्मरुद्भिः सह त्वामेतत्पदार्थसमूहं गुहायामन्तरिक्षे स्थापयति॥५॥

भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। यथा बलवन्तो मरुतो दृढेन स्ववेगेन दृढानपि वृक्षादीन् भञ्जन्ति तथा सूर्यास्तानहर्निशं किरणैश्छिनत्ति मरुतश्च तानुपर्य्यधो नयन्ति, एवमेवेश्वरनियमेन सर्वे पदार्था उत्पत्तिविनाशावपि प्राप्नुवन्ति। _ 'हे इन्द्र! त्वया तीक्ष्णगतिभिर्वायुभिः सह गूढस्थानस्था गावः प्राप्ता' इति मोक्षमूलरव्याख्याऽसङ्गतास्ति। कुतः, उप्रेति रश्मिनामसु निघण्टौ (१.५) पठितत्वेनात्रैतस्यार्थस्यैवार्थस्य योग्यत्वात्। गुहेत्यनेन सर्वावरकत्वादन्तरिक्षस्यैव ग्रहणार्हत्वादिति॥५॥

इत्येकादशो वर्गः समाप्तः॥ __

पदार्थ:-(चित्) जैसे मनुष्य लोग अपने पास के पदार्थों को उठाते धरते हैं, (चित्) वैसे ही सूर्य भी (वीळु) दृढ बल से (उस्रियाः) अपनी किरणों करके संसारी पदार्थों को (अविन्दः) प्राप्त होता है, (अनु) उसके अनन्तर सूर्य उनको छेदन करके (आरुजत्नुभिः) भङ्ग करने और (वह्निभिः) आकाश आदि देशों में पहुंचानेवाले पवन के साथ ऊपर-नीचे करता हुआ (गुहा) अन्तरिक्ष अर्थात् पोल में सदा चढ़ाता गिराता रहता है।॥५॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बलवान् पवन अपने वेग से भारी-भारी दृढ वृक्षों को तोड़ फोड़ डालते और उनको ऊपर नीचे गिराते रहते हैं, वैसे ही सूर्य भी अपनी किरणों से उनकाछेदन करता रहता है, इससे वे ऊपर नीचे गिरते रहते हैंइसी प्रकार ईश्वर के नियम से सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाश को भी प्राप्त होते रहते हैं

'हे इन्द्र! तू शीघ्र चलनेवाले वायु के साथ अप्राप्त स्थान में रहनेवाली गौओं को प्राप्त हुआ।' यह भी मोक्षमूलर साहब की व्याख्या असङ्गत है, क्योंकि 'उस्रा' यह शब्द निघण्टु में रश्मि नाम में पढ़ा है, इससे सूर्य की किरणों का ही ग्रहण होना योग्य है। तथा 'गुहा' इस शब्द से सबको ढांपनेवाला होने से अन्तरिक्ष का ग्रहण है।।५।

यह ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ।

पुनस्ते कीदृशा भवन्तीत्युपदिश्यते।

फिर वे पवन कैसे हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है