ऋग्वेद 1.6.10

 इतो वा इन्द्रं महो  वा सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि।

इन्द्रं महो वा रजसः॥१०॥

इतः। वा। सातिम्। ईमहे। दिवः। वा। पार्थिवात्। अधि। इन्द्रम्। महः। वा। रजसः॥१०॥

पदार्थ:-(इत:) अस्मात् (वा) चार्थे (सातिम्) संविभागं कुर्वन्तम्। अत्र ऊतियूतिजूतिसातिहेति० (अष्टा०३.३.९७) अनेनायं शब्दो निपातितः। (ईमहे) विजानीमः। अत्र ईङ् गतौ, बहुलं छन्दसीति शपो लुकि श्यनभावः। (दिवः) प्रत्यक्षाग्नेः प्रकाशात् (वा) पक्षान्तरे लोकलोकान्तरेभ्योऽपि (पार्थिवात्) पृथिवीसंयोगात्। सर्वभूमिपृथिवीभ्यामणौ। (अष्टा०५.१.४१) इति सूत्रेण पृथिवीशब्दादञ् प्रत्ययः।

(अधि) अधिकार्थे (इन्द्रम्) सूर्य्यम् (महः) महान्तमति विस्तीर्णम् (वा) पक्षान्तरे (रजसः) पृथिव्यादिलोकेभ्यः । लोका रजांस्युच्यन्ते। (निरु०४.१९)।१०।।

अन्वयः-वयमितः पार्थिवाद्वा दिवो वा सातिं कुर्वन्तं रजसोऽधि महान्तं वेन्द्रमीमहे विजानीमः॥१०॥

भावार्थ:-सूर्यकिरणाः पृथिवीस्थान् जलादिपदार्थान् छित्वा लघून् सम्पादयन्ति। अतस्ते वायुना सहोपरि गच्छन्ति। किन्तु स सूर्य्यलोकः सर्वेभ्यो लोकेभ्यो महत्तमोऽस्तीति।

'वयमाकाशात् पृथिव्या उपरि वा महदाकाशात्सहायार्थमिन्द्रं प्रार्थयामहे' इति मोक्षमूलरव्याख्याऽशुद्धास्ति। कुतोऽत्र परिमाणे सर्वेभ्यो महत्तमस्य सूर्यलोकस्यैवाभिधानेनेन्द्रमीमहे विजानीम इत्युक्तप्रामाण्यात्।।१०।।

इन्द्रमरुद्भयो यथा पुरुषार्थसिद्धिः कार्या, ते जगति कथं वर्त्तन्ते कथं च तैरुपकारसिद्धिर्भवेदिति पञ्चमसूक्तेन सह षष्ठस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्।

अस्यापि सूक्तस्य मन्त्रार्थाः सायणाचार्यादिभियूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनाख्यमोक्षमूलरादिभिश्चान्यथैव वर्णिता इति वेदितव्यम्।

इति षष्ठं सूक्तं द्वादशश्च वर्ग: समाप्तः॥

पदार्थ:-हम लोग (इतः) इस (पार्थिवात्) पृथिवी के संयोग (वा) और (दिवः) इस अग्नि के प्रकाश (वा) लोकलोकान्तरों अर्थात् चन्द्र और नक्षत्रादि लोकों से भी (सातिम्) अच्छी प्रकार पदार्थों के विभाग करते हुए (वा) अथवा (रजसः) पृथिवी आदि लोकों से (महः) अति विस्तारयुक्त (इन्द्रम्) सूर्य को (ईमहे) जानते हैं।।१०॥ ___

भावार्थ:-सूर्य की किरण पृथिवी में स्थित हुए जलादि पदार्थों को भिन्न-भिन्न करके बहुत छोटे-छोटे कर देती हैं, इसी से वे पदार्थ पवन के साथ ऊपर को चढ़ जाते हैं, क्योंकि वह सूर्य्य सब लोकों से बड़ा है। _

'हम लोग आकाश पृथिवी तथा बड़े आकाश से सहाय के लिये इन्द्र की प्रार्थना करते हैं, यह भी डाक्टर मोक्षमूलर साहब की व्याख्या अशुद्ध है, क्योंकि सूर्य्यलोक सब से बड़ा है, और उसका आना-जाना अपने स्थान को छोड़ के नहीं होता, ऐसा हम लोग जानते हैं।॥१०॥

सूर्य और पवन से जैसे पुरुषार्थ की सिद्धि करनी चाहिये तथा वे लोक जगत् में किस प्रकार से वर्त्तते रहते हैं और कैसे उनसे उपकार सिद्धि होती है, इन प्रयोजनों से पांचवें सूक्त के अर्थ के साथ छठे सूक्तार्थ की सङ्गति जाननी चाहिये।

और सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी अगरेज विलसन आदि लोगों ने भी इस सूक्त के मन्त्रों के अर्थ बुरी चाल से वर्णन किये हैं

यह छठा सूक्त और बाहरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ।