ऋग्वेद 1.6.1

 अथ दशर्चस्य षष्ठस्य सूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। १-३ इन्द्रः; ४,६,८,९ मरुतः; ५.७

मरुत इन्द्रश्च; १० इन्द्रश्च देवताः। १,३, ५-७, ९-१० गायत्री; २ विराङ्गायत्री; ४,८

निचूद्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥

मन्त्रोक्तविद्यार्थं केऽर्था उपयोक्तव्या इत्युपदिश्यते।

छठे सूक्त के प्रथम मन्त्र में यथायोग्य कार्यों में किस प्रकार से किन-किन पदार्थों को संयुक्त ___ करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है

 युञ्जन्ति। बृध्नम्। अरुषम्। चरन्तम्। परि तस्थुषः।

रोचन्ते। रोचना। दिवि।। १॥

युञ्जन्ति। बृध्नम्। अरुषम्। चरन्तम्। परि तस्थुषः। रोचन्ते। रोचना। दिवि।। १॥

पदार्थ:-(युञ्जन्ति) योजयन्ति (ब्रनम्) महान्तं परमेश्वरम्। शिल्पविद्यासिद्धय आदित्यमग्निं प्राणं वाब्रन इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) अश्वनामसु च। (निघं०१.१४) (अरुषम्) सर्वेषु मर्मसु सीदन्तमहिंसकं परमेश्वरं प्राणवायुं तथा बाह्ये देशे रूपप्रकाशकं रक्तगुणविशिष्टमादित्यं वा। अरुषमिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (चरन्तम्) सर्व जगज्जानन्तं सर्वत्र व्याप्नुवन्तम् (परि) सर्वतः (तस्थुषः) तिष्ठन्तीति तान् सर्वान् स्थावरान् पदार्थान् मनुष्यान् वा। तस्थुष इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (रोचन्ते) प्रकाशन्ते रुचिहेतवश्च भवन्ति (रोचना) प्रकाशिताः प्रकाशकाश्च (दिवि) द्योतनात्मके ब्रह्मणि सूर्यादिप्रकाशे वा। अयं मन्त्रः शतपथेऽप्येवं व्याख्यातः-युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तमिति। असौ वा आदित्यो ब्रनोऽरुषोमुमेवाऽस्मा आदित्यं युनक्ति स्वर्गस्य लोकस्य समष्टयै। (श० ब्रा०१३.१.१५.१)॥१॥ ___अन्वयः-ये मनुष्या अरुषं ब्रघ्नं परितस्थुषश्चरन्तं परमात्मानं स्वात्मनि बाह्यदेशे सूर्य्य वायुं वा युञ्जन्ति ते रोचना सन्तो दिवि प्रकाशे रोचन्ते प्रकाशन्ते।।१।। भावार्थ:-ईश्वर उपदिशति-ये खलु विद्यासम्पादने उद्युक्ता भवन्ति तानेव सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति। तस्माद्विद्वांसः पृथिव्यादिपदार्थेभ्य उपयोगं सङ्ग्रह्योपग्राह्य च सर्वान् प्राणिनः सुखयेयुरिति। यूरोपदेशवासिना भट्टमोक्षमूलराख्येनास्य मन्त्रस्यार्थो रथेऽश्वस्य योजनरूपो गृहीतः; सोऽन्यथास्तीति भूमिकायां लिखितम्॥१॥ पदार्थ:-जो मनुष्य (अरुषम्) अङ्ग-अङ्ग में व्याप्त होनेवाले हिंसारहित सब सुख को करने (चरन्तम्) सब जगत् को जानने वा सब में व्याप्त (परितस्थुषः) सब मनुष्य वा स्थावर जङ्गम पदार्थ और चराचर जगत् में भरपूर हो रहा है, (ब्रनम्) उस महान् परमेश्वर को उपासना योग द्वारा प्राप्त होते हैं, वे (दिवि) प्रकाशरूप परमेश्वर और बाहर सूर्य्य वा पवन के बीच में (रोचना) ज्ञान से प्रकाशमान होके (रोचन्ते) आनन्द में प्रकाशित होते हैं। तथा जो मनुष्य (अरुषम्) दृष्टिगोचर में रूप का प्रकाश करनेतथा अग्निरूप होने से लाल गुणयुक्त (चरन्तम्) सर्वत्र गमन करनेवाले (ब्रनम्) महान् सूर्य और अग्नि को शिल्पविद्या में (परियुञ्जन्ति) सब प्रकार से युक्त करते हैं, वे जैसे (दिवि) सूर्य्यादि के गुणों के प्रकाश में पदार्थ प्रकाशित होते हैं, वैसे (रोचनाः) तेजस्वी होके (रोचन्ते) नित्य उत्तम-उत्तम आनन्द से प्रकाशित होते हैं।॥१॥

भावार्थ:-जो लोग विद्यासम्पादन में निरन्तर उद्योग करनेवाले होते हैं, वे ही सब सुखों को प्राप्त होते हैं। इसलिये विद्वान् को उचित है कि पृथिवी आदि पदार्थों से उपयोग लेकर सब प्राणियों को लाभ पहुंचावे कि जिससे उनको भी सम्पूर्ण सुख मिलें। जो यूरोपदेशवासी मोक्षमूलर साहब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ घोड़े को रथ में जोड़ने का लिया है, सो ठीक नहीं। इसका खण्डन भूमिका में लिख दिया है, वहां देख लेना चाहिये।।१॥

उक्तार्थस्य कीदृशौ गुणौ क्व योक्तव्यावित्युपदिश्यते।

उक्त सूर्य और अग्नि आदि के कैसे गुण है, और वे कहां कहां उपयुक्त करने योग्य हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है