ऋग्वेद 1.5.3

 स घा नो योग आभुव॒त्स राये स पुरन्ध्याम्।

गमद्वाजेभिरा स नः॥३॥

सः। घ। नः। योगें। आ। भुव॒त्। सः। गये। सः। पुरन्ध्याम्। गमत्। वाजेभिः। आ। सः। नः॥३॥

पदार्थ:-(सः) इन्द्र ईश्वरो वायुर्वा (घ) एवार्थे निपातःऋचि तुनुघ०। (अष्टा०६.३.१३३) अनेन दीर्घादेशः। (न:) अस्माकम् (योगे) सर्वसुखसाधनप्राप्तिसाधके (आ भुवत्) समन्ताद् भूयात्। भूधातोराशिषि लिङि प्रथमैकवचने लिड्याशिष्यङ् (अष्टा०३.१.८६) इत्यङि सति किदाशिषीत्यागमानित्यत्वे प्रयोगः। (स:) उक्तोऽर्थः(राये) परमोत्तमधनलाभाय। राय इति धननामसु पठितम्। (निघ०२.१०) (स:) पूर्वोक्तोऽर्थः। (पुरध्याम्) बहुशास्त्रविद्यायुक्तायां बुद्ध्याम्। पुरधिरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.३) (गमत्) आज्ञाप्यात् गमयति वा। अत्र पक्षे वर्तमानेऽर्थे लिडर्थे च लुङ्। बहुलं छन्दस्यमायोगेऽपि। (अष्टा०६.४.७५) इत्यडभावः । (वाजेभिः) उत्तमैरन्नैर्विमानादियानैः सह वा। बहुलं छन्दसि। (अष्टा०७.१.१०) अनेनैसादेशाभावः । (आ) सर्वतः (सः) अतीतार्थे (न:) अस्मान्।॥३॥ ___

अन्वयः-स ह्येवेन्द्रः परमेश्वरो वायुश्च नोऽस्माकं योगे सहायकारी व्यवहारविद्योपयोगाय चाभुवत् समन्ताद् भूयात् भवति वा, तथा स एव राये स पुरन्ध्यां च प्रकाशको भूयाद्भवति वा, एवं स एव वाजेभिः सह नोऽस्मानागमदाज्ञाप्यात् समन्तात् गमयति वा॥३॥

भावार्थ:-अत्र श्लेषालङ्कारः। ईश्वरः पुरुषार्थिनो मनुष्यस्य सहायकारी भवति नेतरस्य, तथा वायुरपि पुरुषार्थेनैव कार्यसिद्धध्युपयोगी भवति नैव कस्यचिद्विना पुरुषार्थे न धनवृद्धिलाभो भवति। नैवैताभ्यां विना कदाचिदुत्तमं सुखं च भवतीत्यतः सर्वैर्मनुष्यैरुद्योगिभिराशीमद्भिर्भवितव्यम्॥३॥

पदार्थः-(सः) पूर्वोक्त इन्द्र परमेश्वर और स्पर्शवान् वायु (नः) हम लोगों के (योगे) सब सुखों के सिद्ध करानेवाले वा पदार्थों को प्राप्त करानेवाले योग तथा (सः) वे ही (राये) उत्तम धन के लाभ के लिये और (सः) वे (पुरन्ध्याम्) अनेक शास्त्रों की विद्याओं से युक्त बुद्धि में (आ भुवत्) प्रकाशित हों। इसी प्रकार (सः) वे (वाजेभिः) उत्तम अन्न और विमान आदि सवारियों के सह वर्त्तमान (न:) हम लोगों को (आगमत्) उत्तम सुख होने का ज्ञान देता तथा यह वायु भी इस विद्या की सिद्धि में हेतु होता है॥३॥

भावार्थ:-इस में भी श्लेषालङ्कार हैईश्वर पुरुषार्थी मनुष्य का सहायकारी होता है आलसी का नहीं, तथा स्पर्शवान् वायु भी पुरुषार्थ ही से कार्यसिद्धि का निमित्त होता है, क्योंकि किसी प्राणी को पुरुषार्थ के विना धन वा बुद्धि का और इन के विना उत्तम सुख का लाभ कभी नहीं हो सकता। इसलिये सब मनुष्यों को उद्योगी अर्थात् पुरुषार्थी आशावाले अवश्य होना चाहिये।॥३॥ ___

पुनरीश्वरसूर्यो गातव्यावित्युपदिश्यते।

ईश्वर ने अपने आप और सूर्य्यलोक का गुणसहित चौथे मन्त्र से प्रकाश किया है