ऋग्वेद 1.4.6

उ॒त नः सुभगा अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टयः

स्यामेदिन्द्रस्य॒ शर्मणि॥६॥

उत। नः। सुभगान्अरिःचेयुः। दस्म। कृष्टयः। स्याम। इत्। इन्द्र॑स्य। शमणि॥६॥

पदार्थ:-(उत) अपि (न:) अस्मान् (सुभगान्) शोभनो विद्यैश्वर्ययोगो येषां तान्। भग इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (अरिः) शत्रुः (वोचेयुः) सम्प्रीत्या सर्वा विद्याः सर्वान्प्रत्युपदिश्यासुः। वचेराशिषि लिङि प्रथमस्य बहुवचने। लिड्याशिष्यङ्। (अष्टा०३.१.८६) अनेन विकरणस्थान्यङ् प्रत्ययः। वच उम्। (अष्टा०७.४.२०)अनेनोमागमः। (दस्म) दुष्टस्वभावोपक्षेतः। 'दसु उपक्षये' इत्यस्मात् इषि युधीधिदसि०। (उणा० १.४४) अनेन मक् प्रत्ययः(कृष्टयः) मनुष्याः। कृष्टय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघ०२.३) (स्याम) भवेम (इ.) एव (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (शर्मणि) नित्यसुखे। शर्मेति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५)॥६॥ ___

अन्वयः-हे दस्मोपक्षयरहित जगदीश्वर ! वयं तवेन्द्रस्य शमणि खल्वाज्ञापालनाख्यव्यवहारे नित्यं प्रवृत्ताः स्यामेमे कृष्टयः सर्वे मनुष्याः सर्वान् प्रति सर्वा विद्या वोचेयुरुपदिशासुर्य्यत: सत्योपदेशप्राप्तान्नोऽस्मानरिरुत शत्रुरपि सुभगान् जानीयाद्वदेच्च॥६॥

भावार्थ:-यदा सर्वे मनुष्या विरोधं विहाय सर्वोपकारणे प्रयतन्ते तदा शत्रवोऽप्यविरोधिनो भवन्ति, यतः सर्वान्मनुष्यानीश्वरानुग्रहनित्यानन्दौ प्राप्नुतः॥६॥

पदार्थ:-हे (दस्म) दुष्टों को दण्ड देनेवाले परमेश्वर! हम लोग। (इन्द्रस्य) आप के दिये हुए (शर्मणि) नित्य सुख वा आज्ञा पालने में (स्याम) प्रवृत्त हों, और ये (कृष्टयः) सब मनुष्य लोग प्रीति के साथ सब मनुष्यों के लिये सब विद्याओं को (वोचेयुः) उपदेश से प्राप्त करें, जिससे सत्य के उपदेश को प्राप्त हुए (न:) हम लोगों को (अरिः) (उत) शत्रु भी (सुभगान्) श्रेष्ठ विद्या ऐश्वर्ययुक्त जाने वा कहें॥६॥

भावार्थ:-जब सब मनुष्य विरोध को छोड़कर सब के उपकार करने में प्रयत्न करते हैं, तब शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, जिससे सब मनुष्यों को ईश्वर की कृपा वा निरन्तर उत्तम आनन्द प्राप्त होते हैं॥६॥

किमर्थः स इन्द्रः प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते

परमेश्वर प्रार्थना करने योग्य क्यों है, यह विषय अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है