ऋग्वेद 1.35.2

 आ कृष्णेन रज॑सा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्य च।

हिरण्ययेन सविता रथेना दे॒वो याति॒ि भुव॑नानि पश्यन्॥२॥

आ। कृष्णेन। रजसा। वर्तमानः। निऽवेशयन्। अमृतम्। मर्त्यम्। च। हिरण्ययेन। सविता रथेन। आ। देवः। यात। भुव॑नानि। पश्यन्॥२॥ ___

पदार्थ:-(आ) समन्तात् (कृष्णेन) कर्षति येन स कृष्णस्तेन। यद्वा कृष्णवर्णेन लोकेन। कृष्णं कृष्येतर्निकृष्टो वर्णः(निरु०२.२०) यत्कृष्णं तदन्नस्य। (छान्दो०६.५) एताभ्यां प्रमाणाभ्यां पृथिवीलोका अत्र गृह्यन्तेकृषेवणे। (उणा०३.४) इति नक् प्रत्ययः। अत्रापूर्वकत्वादाकर्षणार्थो गृह्यते (रजसा) लोकसमूहेन सह। लोका रजांस्युच्यन्ते। (निरु०४.१९) (वर्तमानः) वर्त्ततेऽसौ वर्तमानः (निवेशयन्) नितरां स्वस्वसामर्थ्य स्थापयन् (अमृतम्) अन्तर्यामितया वेदद्वारा च मोक्षसाधकं सत्यं ज्ञानं वृष्टिद्वाराऽमृतात्मकं रसं वा (मर्त्यम्) कर्मप्रलयप्राप्तिव्यवस्थया कालव्यवस्थया वा मरणधर्मयुक्तं प्राणिनम् (च) समुच्चये (हिरण्ययेन) ज्योतिर्मयेनानन्तेन यशसा तेजोमयेन वाऋत्व्यवास्त्व्यवास्त्वमाध्वीहिरण्ययानि छन्दसि। (अष्टा० वा०६.४.१७५) इत्ययं निपातितःज्योतिर्हि हिरण्यम्। (श० ब्रा०४.३.१.२१) (सविता) सर्वेषां प्रसविता प्रकाशवृष्टिरसानां च प्रसविता (रथेन) रंहति जानाति गच्छति गमयति वा येन तेन। रथो रहतेर्गतिकर्मणः। (निरु०९.११) (आ) समन्तात् (देवः) दीव्यति प्रकाशयतीति (याति) प्राप्नोति प्रापयति वा। अत्र पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः । (भुवनानि) भवन्ति भूतानि येषु तानिभूसू० (उणा०२.७८) इत्यधिकरणे क्युन् प्रत्ययः। (पश्यन्) प्रेक्षमाणो दर्शयन् वा। अत्रापि पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः ।।२।।

अन्वयः-अयं सविता देवः परमेश्वर आकृष्णेन रजसा सहाभिव्याप्य वर्त्तमानः सर्वस्मिन् जगत्यमृतं मर्त्य च निवेशयन् सन् हिरण्ययेन यशोमयेन ज्ञानरथेन युक्तो भुवनानि पश्यन्नायाति समन्तात् सर्वान् पदार्थान् प्राप्नोतीति पूर्वोऽन्वयः। अयं सविता देवः सूर्यलोकः कृष्णेन रजसा सह वर्तमानोऽस्मिन् जगत्यमृतं मर्त्य च निवेशयन् हिरण्ययेन रथेन भुवनानि पश्यन् दर्शयन् सन्नायाति समन्ताद् वृष्टयादिरूपविभागं च प्रापयतीत्यपरोऽन्वयः।।२।।

भावार्थ:-अत्र श्लेषालङ्कारः। यथा पृथिव्यादयो लोकाः सर्वान् मनुष्यादीन् धरन्ति सूर्यलोक आकर्षणेन पृथिव्यादीन् धरति। ईश्वरः स्वसत्तया सूर्यादीन् लोकान् धरति। एवं क्रमेण सर्वलोकधारणं प्रवर्त्तते, नैतेन विनान्तरिक्षे कस्यचिद् गुरुत्वयुक्तस्य लोकस्य स्वपरिधौ स्थितेः सम्भवोऽस्ति। नैव लोकानां भ्रमणेन विना क्षणमुहूर्त्तप्रहराहोरात्रपक्षमासर्तुसंवत्सरादयः कालावयवा उत्पत्तुं शक्नुवन्तीति॥२॥

पदार्थ:-यह (सविता) सब जगत् के उत्पन्न करने वाला (देवः) सबसे अधिक प्रकाशयुक्त परमेश्वर (आकृष्णेन) अपनी आकर्षण शक्ति से (रजसा) सब सूर्य्यादि लोकों के साथ व्यापक (वर्तमानः) हुआ (अमृतम्) अन्तर्यामिरूप वा वेद द्वारा मोक्षसाधक सत्य ज्ञान (च) और (मर्त्यम्) कर्मों और प्रलय की व्यवस्था से मरणयुक्त जीव को (निवेशयन्) अच्छे प्रकार स्थापना करता हुआ (हिरण्ययेन) यशोमय (रथेन) ज्ञानस्वरूप रथ से युक्त (भुवनानि) लोकों को (पश्यन्) देखता हुआ (आयाति) अच्छे प्रकार सब पदार्थों को प्राप्त होता है।।१॥२॥

यह (सविता) प्रकाश वृष्टि और रसों का उत्पन्न करने वाला (कृष्णेन) प्रकाशरहित (रजसा) पृथिवी आदि लोकों के साथ (आ वर्तमानः) अपनी आकर्षण शक्ति से वर्तमान इस जगत् में (अमृतम्) वृष्टि द्वारा अमृत स्वरूप रस (च) तथा (मर्त्यम्) काल व्यवस्था से मरण को (निवेशयन्) अपने-अपने सामर्थ्य में स्थापन करता हुआ (हिरण्ययेन) प्रकाशस्वरूप (रथेन) गमन शक्ति से (भुवनानि) लोकों को (पश्यन्) दिखाता हुआ (आयाति) अच्छे प्रकार वर्षा आदि रूपों की अलग अलग प्राप्ति कराता है।॥२॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे सब पृथिवी आदि लोक मनुष्यादि प्राणियों वा सूर्यलोक अपने आकर्षण से पृथिवी आदि लोकों वा ईश्वर अपनी सत्ता से सूर्यादि सब लोकों का धारण करता है, ऐसे क्रम से सब लोकों का धारण होता है, इसके विना अन्तरिक्ष में किसी अत्यन्त भारयुक्त लोक का अपनी परिधि में स्थिति होने का सम्भव नहीं होता और लोकों के घूमने विना क्षण, मुहूर्त, प्रहर, दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु और संवत्सर आदि कालों के अवयव नहीं उत्पन्न हो सकते हैं।।२।।

अथ वायुसूर्य्यदृष्टान्तेन शूरवीरगुणा उपदिश्यन्ते

अब वायु और सूर्य के दृष्टान्त के साथ अगले मन्त्र में शूरवीर के गुणों का उपदेश किया है।