ऋग्वेद 1.32.1

 अथ पञ्चदशर्चस्य द्वात्रिंशस्य सूक्तस्याङ्गिरसो हिरण्यस्तूप ऋषिः। इन्द्रो। देवता। त्रिष्टुप् छन्दः

धैवतः स्वरः।

तत्रादाविन्द्रशब्देन सूर्यलोकदृष्टान्तेन राजगुणा उपदिश्यन्ते॥

अब बत्तीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके पहिले मन्त्र में इन्द्र शब्द से सूर्यलोक की उपमा करके राजा के गुणों का प्रकाश किया है।

इन्द्रस्य॒ नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री।

अहुन्नहिमन्व॒पस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत् पर्वतानाम्॥१॥

इन्द्रस्य। नु। वीर्याणि। प्रा वोचम्। यानि। चकार। प्रथमानि। वज्री। अहंन्। अहिम्। अनु। अ॒पः। ततर्द। प्रा वृक्षाः । अभिनत्। पर्वतानाम्॥ १॥

पदार्थ:-(इन्द्रस्य) सर्वपदार्थविदारकस्य सूर्यलोकस्येव सभापते राज्ञः (नु) क्षिप्रम् (वीर्याणि) आकर्षणप्रकाशयुक्तादिवत् कर्माणि (प्र) प्रकृष्टार्थे (वोचम्) उपदिशेयम्। अत्र लिडर्थे लुङडभावश्च(यानि) (चकार) कृतवान् करोति करिष्यति वा। अत्र सामान्यकाले लिट्। (प्रथमानि) प्रख्यातानि (वज्री) सर्वपदार्थविच्छेदक किरणवानिव शत्रूच्छेदी (अहन्) हन्ति। अत्र लडर्थे लङ्। (अहिम्) मेघम्। अहिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं १.१०) (अनु) पश्चादर्थे (अप:) जलानि (ततर्द) तर्दति हिनस्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (प्रवक्षणाः) वहन्ति जलानि यास्ता नद्यः (अभिनत्) विदारयति। अत्र लडथे लडन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (पर्वतानाम्) मेघानां गिरीणां वापर्वत इति मेघनामसु पठितम्। (निघ०१.१०)॥१॥ __

अन्वयः-हे विद्वांसो मनुष्या! यूयं यथा यस्येन्द्रस्य सूर्य्यस्य यानि प्रथमानि वीर्याणि पराक्रमान् प्रवक्ततान्यहं नु प्रवोचम्। यथा स वज्रयहिमहन् तदवयवा अपोऽध ऊर्ध्वं चकार तं ततर्द पर्वतानां सकाशात्प्रवक्षणा अभिनत् तथाऽहं शत्रून् हन्याम् तानऽध ऊर्ध्वमनुतर्देयम् दुर्गादीनां सकाशाद्युद्धायागताः सेना भिन्द्याम्॥१॥

भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। ईश्वरेणोत्पादितोऽयमग्निमयः सूर्यलोको यथा स्वकीयानि स्वाभाविकगुण-युक्तान्यन्नादीनि प्रकाशाकर्षणदाहछेदनवर्षोत्पत्तिनिमित्तानि कर्माण्यहर्निशं करोति, तथैव प्रजापालनतत्परै राजपुरुषैरपि भवितव्यम्॥१॥

पदार्थ:-हे विद्वान् मनुष्यो! तुम लोग जैसे (इन्द्रस्य) सूर्य के (यानि) जिन (प्रथमानि) प्रसिद्ध (वीर्याणि) पराक्रमों को कहो, उनकों में भी (नु) (प्रवोचम्) शीघ्र कहूं, जैसे वह (वज्री) सब पदार्थों केछेदन करने वाले किरणों से युक्त सूर्य्य (अहिम्) मेघ को (अहन्) हनन करके वर्षाता उस मेघ के अवयव रूप (अपः) जलों को नीचे-ऊपर (चकार) करता, उसको (ततर्द) पृथिवी पर गिराता और (पर्वतानाम्) उन मेघों उन मेघों के सकाश से (प्रवक्षणाः) नदियों को छिन्न-भिन्न करके बहाता है। वैसेमैं शत्रुओं को मारूं उनको इधर-उधर फेंकू और उनको तथा किला आदि स्थानों से युद्ध करने के लिये आई सेनाओं को छिन्न-भिन्न करूं।।१।

भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर का उत्पन्न किया हुआ यह अग्निमय सूर्यलोक जैसे अपने स्वाभाविक गुणों से युक्त अन्नादि, प्रकाश, आकर्षण, दाह, छेदन और वर्षा की उत्पत्ति के निमित्त कामों को दिन-रात करता है, वैसे जो प्रजा के पालन में तत्पर राजपुरुष हैं, उनको भी नित्य करना चाहिये॥१॥ ___

पुन: स कि करोतीत्युपदिश्यते।।

फिर वह सूर्य्य तथा सभापति क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।