ऋग्वेद 1.31.1

 अथाष्टादशर्चस्यैकत्रिंशत्तमस्य सूक्तस्याङ्गिरसो हिरण्यस्तूप ऋषिः। अग्निर्देवता १-७९-१५।

१७ जगतीछन्दो निषादः स्वरः ८,१६, १८ त्रिष्टुप् च छन्दः। धैवतः स्वरः॥

तत्रादिमेनेश्वर उपदिश्यते॥

अब इकतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उस के पहिले मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है।।

त्वम॑ग्ने प्रथमो अङ्गिरा ऋषिवो दे॒वाना॑मभवः शिवः सखा।

तव व्रते कवयो विनापसोऽजायन्त मरुतो भ्राज॑दृष्टयः॥१॥

त्वम्। अ॒ग्ने। प्रथमः। अङ्गिराः। ऋषिः। दे॒वः। देवानाम्। अभवः। शिवः। सखो। तव व्रते। कवयः। विद्यनाऽअपसः। अजायन्त। मरुतः। भ्राज॑त्ऽऋष्टयः॥ १॥

पदार्थ:-(त्वम्) जगदीश्वरः (अग्ने) स्वप्रकाशविज्ञानस्वरूपेश्वर (प्रथमः) अनादिस्वरूपो जगतः कल्पादौ सदा वर्तमानः (अङ्गिराः) पृथिव्यादीनां ब्रह्माण्डस्य शिरआदीनां शरीरस्य रसोऽन्तर्यामिरूपेणावस्थितः। आङ्गिरसो अङ्गाना हि रसः। (श०ब्रा०१४.३.१.२१) (ऋषिः) सर्वविद्याविद्वेदोपदेष्टा (देवः) आनन्दोत्पादकः (देवानाम्) विदुषाम् (अभवः) भवसि। अत्र लडथे लङ्। (शिवः) मङ्गलमयो जीवानां मङ्गलकारी च (सखा) सर्वदुःखविनाशनेन सहायकारी (तव) जगदीश्वरस्य (व्रते) धर्माचारपालनाज्ञानियम (कवयः) विद्वांसः (विद्मनापसः) वेदनं विद्म तद्विद्यते येष तानि विज्ञाननिमित्तानि समन्तादपांसि कर्माणि येषां ते (अजायन्त) जायन्ते। अत्र लडर्थे लङ्(मरुतः) धर्मप्राप्ता मनुष्याःमरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघ०५.५) (भ्राजदृष्टयः) भ्राजत् प्रकाशमाना विद्या ऋष्टिनिं येषान्ते॥१॥

अन्वयः-हे अग्ने! यतस्त्वं प्रथमोऽगिरा ऋषिर्देवानां देवः शिवः सखाऽभवो भवसि ये विद्मनापसो मनुष्यास्तव व्रते वर्तन्ते तस्मात्त एव भ्राजदृष्टयः कवयोऽजायन्त जायन्ते।।१॥

भावार्थ:-य ईश्वराज्ञाधर्मविद्वत्सङ्गान् विहाय किमपि न कुर्वन्ति, तेषां जगदीश्वरेण सह मित्रता भवति, पुनस्तन्मित्रतया तेषामात्मसु सत्यविद्याप्रकाशो जायते, पुनस्ते विद्वांसो भूत्वोत्तमानि कर्माण्यनुष्टाय सर्वेषां प्राणिनां सुखप्रापकत्वेन प्रसिद्धा भवन्तीति।।१।।

पदार्थ:-हे (अग्ने) आप ही प्रकाशित और विज्ञान स्वरूप युक्त जगदीश्वर जिसका कारण (त्वम्) आप (प्रथम:) अनादि स्वरूप अर्थात् जगत् कल्प की आदि में सदा वर्तमान (अङ्गिराः) ब्रह्माण्ड के पृथिवी आदि शरीर के हस्त पाद आदि अङ्गों के रस रूप अर्थात् अन्तर्यामी (ऋषिः) सर्व विद्या से परिपूर्ण वेद के उपदेश करने और (देवानाम्) विद्वानों के (देवः) आनन्द उत्पन्न करने (शिवः) मङ्गलमय तथा प्राणियों को मङ्गल देने तथा (सखा) उनके दुःख दूर करने से सहायकारी (अभवः) होते हो और जो (विद्मनापसः) ज्ञान के हेतु काम युक्त (मरुतः) धर्म को प्राप्त मनुष्य (तव) आप की (व्रत) आज्ञानियम में रहते हैं, इससे वही (भ्राजदृष्टयः) प्रकाशित अर्थात् ज्ञान वाले (कवयः) कवि विद्वान् (अजायन्त) होते हैं।।१॥

भावार्थ:-जो ईश्वर की आज्ञा पालन धर्म और विद्वानों के संग के सिवाय और कुछ काम नहीं करते हैं, उनकी परमेश्वर के साथ मित्रता होती है, फिर उस मित्रता से उनके आत्मा में सत् विद्या का प्रकाश होता है और वे विद्वान् होकर उत्तम काम का अनुष्ठान करके सब प्राणियों के सुख करने के लिये प्रसिद्ध होते हैं।॥१॥

पुन: स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ __

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।