ऋग्वेद 1.29.6

 पाति कुण्डणाच्या दूरं वात वादधि

आ तू न इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥६॥

पाति। कुण्डणाच्या। दूरम्। वातः। वात्। अधि। आ। तु। नः। इन्द्र। शंसय। गोषु। अश्वेषु। शुभ्रिषु। सहस्रेषु। तुविऽमघ॥६॥

पदार्थः-(पताति) गच्छेत् (कुण्डणाच्या) यया कुटिलां गतिमञ्चति प्राप्नोति तया (दूरम्) विप्रकृष्टदेशम् (वातः) वायुः (वनात्) वन्यते सेव्यते तद्वनं जगत् तस्मात्किरणेभ्यो वा। वनमिति रश्मिनामसु पठितम्। (निघ०१.५) (अधि) उपरिभावे (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। पूर्ववदीर्घः। (न:) अस्मान् (इन्द्र) परमविद्वन् (शंसय) (गोषु) पृथिवीन्द्रियकिरणचतुष्पात्सु (अश्वेषु) वेगादिगणेषु (शुभ्रिषु) शुद्धेषु व्यवहारेषु (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) तुवि बहुविधं धनं साध्यते येन तत्सम्बुद्धौ। अत्र पूर्ववद्दीर्घः ॥६॥ __

अन्वयः-हे तुविमघेन्द्र! त्वं यथा वात: कुण्डणाच्यागत्यावनाज्जगतः किरणेभ्यो वाधिपताति उपर्यधो गच्छेत् तथानुतिष्ठ सहस्रेषु गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु नोऽस्मानाशंसय॥६॥

भावार्थ:-अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरेवं वेदितव्यं योऽयं वायुः स एव सर्वतोऽभिगच्छन्नग्न्यादिभ्योऽधिक: कुटिलगतिर्बद्धैश्वर्यप्राप्ति: पशुवृक्षादीनां चेष्टावृद्धिभञ्जनकारकः सर्वस्य व्यवहारस्य च हेतुस्तीति बोध्यम्॥६॥ ___

पदार्थ:-हे (तुविमघ) अनेकविध धनों को सिद्ध करने हारे (इन्द्र) सर्वोत्कृष्ट विद्वान्! आप जैसे (वातः) पवन (कुण्डणाच्या) कुटिलगति से (वनात्) जगत् और सूर्य की किरणों से (अधि) ऊपर वा इनके नीचे से प्राप्त होकर आनन्द करता है, वैसे (तु) बारम्बार (सहस्रेषु) हजारह (अश्वेषु) वेग आदि गुण वाले घोड़े आदि (गोषु) पृथिवी, इन्द्रिय, किरण और चौपाए (शुभ्रिषु) शुद्ध व्यवहारों में सब प्राणियों और अप्राणियों को सुशोभित करता है, वैसे (नः) हम को (आशंसय) प्रशंसित कीजिये॥६॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को ऐसा जानना चाहिये कि जो यह पवन है वही सब जगह जाता हुआ अग्नि आदि पदार्थों से अधिक कुटिलता से गमन करने हारा और बहुत से ऐश्वर्य की प्राप्ति तथा पशु वृक्षादि पदार्थों के व्यवहार उनके बढ़ने-घटने और समस्त वाणी के व्यवहार का हेतु है॥६॥

पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते।

फिर वह क्या करे इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।