ऋग्वेद 1.27.10

 जराबोध तद्विविढि विशेविशे यज्ञियाय।

स्तोमं रुद्राय दृशीकम्॥१०॥२३॥

जराऽबोध। तत्। विविढ़ि। विशेऽविशे। यज्ञियाय। स्तोम॑म्। रुद्राय। दृशीकम्॥ १०॥

पदार्थ:-(जराबोध) जरया गुणस्तुत्या बोधो यस्य सैन्यनायकस्य तत्सम्बुद्धौ (तत्) तस्मात् (विविड्ढि) व्याप्नुहि। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात्। निजां त्रयाणां गुण:० (अष्टा०७.४.७५) अनेनाभ्यासस्य गुणनिषेधः । (विशेविशे) प्रजायै प्रजायै (यज्ञियाय) यज्ञकर्माहतीति यज्ञियो योद्धा तस्मै। अत्र तत्कर्माहतीत्युपसंख्यानम्। (अष्टा० वा०५.१.७१) अनेन वार्त्तिकेन यज्ञशब्दाद् घः प्रत्यय: (स्तोमम्) स्तुतिसमूहम् (रुद्राय) रोदकाय (दृशीकम्) द्रष्टुमर्हम्। अत्र बाहुलकादौणादिक ईकन् प्रत्ययः। किच्च। यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं समाचष्टेजरा स्तुतिर्जरते: स्तुतिकर्मणस्तां बोधय तया बोधयितरिति वा। तद्विविड्ढि तत्कुरु। मनुष्यस्य मनुष्यस्य वा यज्ञियाय स्तोमं रुद्राय दर्शनीयम्। (निरु०१०.८)।१०।।

अन्वयः-हे जराबोध सेनाधिपते! त्वं यस्माद् विशेविशे यज्ञियाय रुद्राय दृशीकं स्तोमं विविड्ढि तत्तस्मान्मानार्होऽसि॥१०॥ 

भावार्थ:-अत्र पूर्णोपमालङ्कारः। नैव धनुर्वेदविदो गुणश्रवणेन विनाऽस्य बोधः सम्भवति, यः प्रजासुखाय तीक्ष्णस्वभावान् शत्रुबलहृद्धृत्यान् सुशिक्ष्य रक्षति, स एव प्रजापालो भवितुमर्हति॥१०॥ ___

पदार्थ:-हे (जराबोध) गुण कीर्तन से प्रकाशित होने वाले सेनापति आप जिससे (विशेविशे) प्राणी-प्राणी के सुख के लिये (यज्ञियाय) यज्ञकर्म के योग्य (रुद्राय) दुष्टों को रुलाने वाले के लिये सब पदार्थों को प्रकाशित करने वाले (दृशीकम्) देखने योग्य (स्तोमम्) स्तुतिसमूह गुणकीर्तन को (विविढि) व्याप्त करते हो, (तत्) इससे माननीय हो।।१०।

भावार्थ:-इस मन्त्र में पूर्णोपमालङ्कार है। युद्धविद्या के जानने वाले के गुणों को श्रवण करे विना इस का ज्ञान नहीं होता और जो प्रजा के सुख के लिये अतितीक्ष्ण स्वभाव वाले शत्रुओं के बल के नाश करनेहारे भृत्त्यों को अच्छी शिक्षा दे कर रखता है, वही प्रजापालन में योग्य होता है॥१०॥

पुनर्भोतिकगुणा उपदिश्यन्ते।

फिर अगले मन्त्र में भौतिक अग्नि के गुण प्रकाशित किये हैं।