ऋग्वेद 1.27.14

 नौ महद्भ्यो नौ अर्भकेभ्यो नमॊ युव॑भ्यो नम आशिनेभ्यः।

याम देवान् यदि शक्नाम मा ज्यायसः शंसमा वृक्षि देवाः॥१३॥२४॥

नमः। महत्ऽभ्यः। नमः। अर्भकेभ्यः। नमः। युवऽभ्यः। नमः। आशिनेभ्यः। यजामा दे॒वान्। यदि। शुक्नाम। मा। ज्यायसः। शंसम्। आ। वृक्षिा दे॒वाः॥१३॥

पदार्थः-(नमः) सत्करणमन्नं वा। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं० २.७) (महद्भयः) पूर्णविद्यायुक्तेभ्यो विद्वद्भयः (नम:) प्रीणनाय (अर्भकेभ्यः) अल्पगुणेभ्यो विद्यार्थिभ्यः (नमः) सत्काराय (युवभ्यः) युवावस्थया बलिष्टेभ्यो विद्वद्भयः (नमः) सेवायै (आशिनेभ्यः) सकलविद्याव्यापकेभ्यः स्थविरेभ्यः (यजाम) दद्याम (देवान्) विदुषः (यदि) सामर्थ्याऽनुकूलविचारे (शक्मवाम) समर्था भवेम (मा) निषेधार्थे (ज्यायसः) विद्याशुभगुणज्येष्ठान् (शंसम्) शंसन्ति येन तं स्तुतिसमूहम् (आ) समन्तात् (वृक्षि) वर्जयेयम्अत्र 'वृजी वर्जन' इत्यस्माल्लिडर्थे लुङ् छन्दस्युभयथा इति सार्वधातुकाश्रयणादिण् नवृजीत्यस्य सिद्धे सति सायणाचार्येण ओव्रश्चू इत्यस्य व्यत्ययं मत्त्वा प्रमादादेवोक्तमिति (देवाः) देवयन्ति प्रकाशयन्ति विद्यास्तत्सम्बोधने।१३॥ __

अन्वयः-हे देवा विद्वांसो वयं महद्भयोऽन्नं यजाम दद्यामैवमर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यश्च नमो ददन्तो वयं यदि शक्नवाम ज्यायसो देवानायजाम समन्ताद् विद्यादानं कुर्यामवं प्रतिजनोऽहमेतेषां शंसम्मावृक्षि कदाचिन्मा वर्जयेयम्॥१३।। ___

भावार्थ:-अत्र मनुष्यैर्निरभिमानत्वं प्राप्यान्नादिभिः सर्वे सत्कर्त्तव्या इतीश्वर उपदिशति यावत्स्वसामर्थ्य तावद्विदुषां सङ्गसत्कारौ नित्यं कर्त्तव्यो नैव कदाचित्तेषां निन्दा कर्त्तव्येति।।१३॥ पूर्वेणाग्न्यर्थप्रतिपादनस्य बोद्धारो विद्वांस एव भवन्तीत्यस्मिन् सूक्ते प्रतिपादनात् षडविंशसूक्तार्थेन सहास्य सप्तविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्।

इति प्रथमस्य द्वितीये चतुर्विंशो वर्गः

प्रथममण्डले षष्ठेऽनुवाके सप्तविशं सूक्तं च समाप्तम्।

पदार्थ:-हे (देवाः) सब विद्याओं को प्रकाशित करने वाले विद्वानो! हम लोग (महद्भ्यः) पूर्ण विद्यायुक्त विद्वानों के लिये (नमः) सत्कार अन्न (यजाम) करें और दें (अर्भकेभ्यः) थोड़े गुणवाले विद्यार्थियों के (नमः) तृप्ति (युवभ्यः) युवावस्था से जो बल वाले विद्वान् हैं उनके लिये (नमः) सत्कार (आशिनेभ्यः) समस्त विद्याओं में व्याप्त जो बुड्ढे विद्वान् हैं, उनके लिये (नमः) सेवापूर्वक देते हुए (यदि) जो सामर्थ्य के अनुकूल विचार में (शक्नवाम) समर्थ हों तो (ज्यायसः) विद्या आदि उत्तम गुणों से अति प्रशंसनीय (देवान्) विद्वानों को (आयजाम) अच्छे प्रकार विद्या ग्रहण करें, इसी प्रकार हम सब जने (शंसम्) इनकी स्तुति प्रशंसा को (मा वृक्षि) कभी न काटें॥१३॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में ईश्वर का यह उपदेश है कि मनुष्यों को चाहिये अभिमान छोड़कर अन्नादि से सब उत्तम जनों का सत्कार करें अर्थात् जितना धन पदार्थ आदि उत्तम बातों से अपना सामर्थ्य हो उतना उनका संग करके विद्या प्राप्त करें, किन्तु उनकी कभी निन्दा न करें।।१३।

पिछले सूक्त में अग्नि का वर्णन है उसको अच्छे प्रकार जानने वाले विद्वान् ही होते हैं, उनका यहाँ वर्णन करने से छब्बीसवें सूक्तार्थ के साथ इस सत्ताईसवें सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये

यह पहले अष्टक में दूसरे अध्याय में चौबीसवां वर्ग और पहिले मण्डल में छठे अनुवाक में सत्ताईसवां सूक्त समाप्त हुआ॥२७॥