इममू षु त्वम॒स्माकं सनिं गायत्रं नव्यांसम्।
अग्ने देवेषु प्र वोचः॥४॥
इमम्। ऊम् इति। सु। त्वम्। अस्माकम्। सनिम्। गायत्रम्। नव्यांसम्। अग्ने। देवेषु। प्रा वोचः॥४॥
पदार्थः-(इमम्) वक्ष्यमाणम् (ऊ) वितर्के अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (सु) शोभने (त्वम्) सर्वमङ्गलप्रदातेश्वरः (अस्माकम्) मनुष्याणाम् (सनिम्) सनन्ति सम्भजन्ति सुखानि यस्मिन् व्यवहारे तम्। अत्र ‘सन' धातोः। खनिकृष्यज्यसिवसिवनिसनि० (उणा०४.१४५) अनेनाऽधिकरण ‘इ:' प्रत्ययः। (गायत्रम्) गायत्रीप्रगाथा येषु चतुर्पु वेदेषु तं वेदचतुष्टयम् (नव्यांसम्) अतिशयेन नवो नवीनो बोधो यस्मात्तम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इत्यनेनेकारलोपश्च। (अग्ने) अनन्तविद्यामय जगदीश्वर (देवेषु) सुष्टयादौ पुण्यात्मसु जातेष्वग्निवाय्वादित्याङ्गिरस्सु मनुष्येषु (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (वोच:) प्रोक्तवान्। अत्र ‘वच' धातोर्वर्तमाने लुङडभावश्च।।४।
अन्वयः-हे अग्ने! त्वं यथा देवेषु नव्यांसं गायत्रं सुसनिं प्रवोचस्तथेममु इति वितर्केऽस्माकमात्मसु प्रवग्धि।।४
भावार्थ:-हे जगदीश्वर! भवान् यथा ब्रह्मादीनां महर्षीणां धार्मिकाणां विदुषामात्मसु सत्यं बोधं प्रकाश्य परमं सुखं दत्तवान्, तथैवास्माकमात्मसु तादृशमेव प्रकाशय यतो वयं विद्वांसो भूत्वा श्रेष्ठानि धर्मकार्याणि सदैव कुर्य्यामेति।।४॥
पदार्थ:-हे (अग्ने) अनन्त विद्यामय जगदीश्वर (त्वम्) सब विद्याओं का उपदेश करने और सब मङ्गलों के देने वाले आप जैसे सृष्टि की आदि में (देवेषु) पुण्यात्मा अग्नि वायु आदित्य अङ्गिरा नामक मनुष्यों के आत्माओं में (नव्यांसम्) नवीन-नवीन बोध कराने वाला (गायत्रम्) गायत्री आदि छन्दों से युक्त (सुसनिम्) जिन में सब प्राणी सुखों का सेवन करते हैं, उन चारों वेदों का (प्रवोचः) उपदेश किया और अगले कल्प-कल्पादि में फिर भी करोगे, वैसे उसको (उ) विविध प्रकार से (अस्माकम्) हमारे आत्माओं में (सु) अच्छे प्रकार कीजिये।।४।
भावार्थ:-हे जगदीश्वर! आप ने जैसे ब्रह्मा आदि महर्षि धार्मिक विद्वानों के आत्माओं में वेद द्वारा सत्य बोध का प्रकाश कर उनको उत्तम सुख दिया वैसे ही हम लोगों के आत्माओं में बोध प्रकाशित कीजिये, जिससे हम लोग विद्वान् होकर उत्तम-उत्तम धर्मकार्यों का सदा सेवन करते रहें
पुनर्मनुष्यान् प्रति विदुषा कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते।।
फिर मनुष्यों के प्रति विद्वानों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया । हैं,