ऋग्वेद 1.25.21

 उर्दुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं घृत।

अाधमानि जीवसे॥ २१॥१९॥

उत्। उत्तमम्। मुमुग्धि। नः। वि। पार्शम्। मध्यमम्। चूत। अवा अधमानि। जीवसे॥ २१॥

पदार्थ:-(उत्) उत्कृष्टार्थे क्रियायोगे वा (उत्तमम्) उत्कृष्टम् (मुमुग्धि) मोचय। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्लुः। (नः) अस्माकम् (वि) विविधार्थे (पाशम्) बन्धनम् (मध्यमम्) उत्कृष्टानुकृष्टयोरन्तर्भवम् (घृत) नाशय। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (अव) क्रियायोगे (अधमानि) निकृष्टानि बन्धनानि (जीवसे) चिरं जीवितुम्। अत्र तुमर्थ से० इत्यसेन्प्रत्ययः॥२१॥

अन्वयः-हे वरुणाविद्यान्धकारविदारकेश्वर! त्वं करुणया नोऽस्माकं जीवस उत्तमं मध्यम पाशमुन्मुमुग्ध्यधमानि बन्धनानि च व्यववृत॥२१॥

भावार्थ:-यथा धार्मिकाः परोपकारिणो विद्वांसो भूत्वेश्वरं प्रार्थयन्ते तेषां जगदीश्वरः सर्वाणि दुःखबन्धनादीनि निवार्येतान् सुखयति, तथास्माभिः कथं नानुचरणीयानि॥२१॥

चतुर्विंशसूक्तोक्तानां प्राजापत्यादीनामर्थानां मध्यस्थस्य वरुणार्थस्योक्तत्त्वाच्चातीतसूक्तार्थेनास्य पञ्चविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्।

इति प्रथमस्य द्वितीय एकोनविशो वर्गः।१।६॥

पञ्चविशं सूक्तं च समाप्तम्॥ २५॥

पदार्थ:-हे अविद्यान्धकार के नाश करने वाले जगदीश्वर! आप (नः) हम लोगों के (जीवसे) बहुत जीने के लिये हमारे (उत्तमम्) श्रेष्ठ (मध्यमम्) मध्यम दुःखरूपी (पाशम्) बन्धनों को (उन्मुमुग्धि)अच्छे प्रकार छुड़ाइये तथा (अधमानि) जो कि हमारे दोषरूपी निकृष्ट बन्धन हैं, उनका भी (व्यवचूत) विनाश कीजिये।।२१॥

भावार्थ:-जैसे धार्मिक परोपकारी विद्वान् होकर ईश्वर की प्रार्थना करते हैं जगदीश्वर उनके सब दुःख बन्धनों को छुड़ाकर सुख युक्त करता है, वैसे कर्म हम लोगों को क्या न करना चाहिये॥२१॥ ____

चौबीसवें सूक्त में कहे हुए प्रजापति आदि अर्थों के बीच जो वरुण शब्द है, उसके अर्थ को इस पच्चीसवें सूक्त में कहने से सूक्त के अर्थ की सङ्गति पहिले सूक्त के अर्थ के साथ जाननी चाहिये।

यह पहिले अष्टक और दूसरे अध्याय में उन्नीसवां वर्ग और पहिले मण्डल में छठे अनुवाक में पच्चीसवां

सूक्त समाप्त हुआ॥ २५॥