दर्श नु विश्वदर्शतं दर्श रथुमधि क्षमि।
एता जुषत मे गिरः॥१८॥
दर्शम्। नु। विश्वऽदर्शतम्। दर्शम्। रथम्। अधि। क्षमि। एताःजुषत। मे। गिरः॥ १८॥
पदार्थः-(दर्शम्) पुनः पुनर्द्रष्टुम् (नु) अनुपृष्टे (विश्वदर्शतम्) सर्वैर्विद्वद्भिर्द्रष्टव्यं जगदीश्वरम् (दर्शम्) पुनः पुनः सम्प्रेक्षितुम् (रथम्) रमणीयं विमानादियानम् (अधि) उपरिभावे (क्षमि) क्षाम्यन्ति सहन्ते जना यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन् स्थित्वा। अत्र कृतो बहुलम् इत्यधिकरणे क्विप्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति अनुनासिकस्य क्विझलोः क्डिति। (अष्टा०६.४.१५) इति दीर्घो न भवति (एताः) वेदविद्यासुशिक्षासंस्कृताः (जुषत) सेवध्वम् (मे) मम (गिरः) वाणीः॥१८॥
अन्वयः-हे मनुष्या! यूयमधि क्षमि स्थित्वा विश्वदर्शतं वरुणं परेशं दर्श रथं नु दर्श मे ममता गिरो वाणीर्जुषत नित्यं सेवध्वम्।।१८॥
भावार्थ:-यस्मात् क्षमादिगुणसहितैर्मनुष्यैः प्रश्नोत्तरव्यवहारेणानुष्ठानेन विनेश्वरं शिल्पविद्यासिद्धानि यानानि च वेदितुं न शक्यानि, तत्र ये गुणास्तेऽपि चास्मादेतेषां विज्ञानाय सर्वदा प्रयतितव्यम्॥१८॥
पदार्थ:-हे मनुष्यो! तुम (अधिक्षमि) जिन व्यवहारों में उत्तम और निकृष्ट बातों का सहना होता है, उनमें ठहर कर (विश्वदर्शतम्) जो कि विद्वानों की ज्ञानदृष्टि से देखने के योग्य परमेश्वर है उसको (दर्शम्) बारंबार देखने (स्थम्) विमान आदि यानों को (नु) भी (दर्शम्) पुन:-पुनः देख के सिद्ध करने के लिये (मे) मेरी (गिरः) वाणियों को (जुषत) सदा सेवन करो॥१८॥
भावार्थ:-जिससे क्षमा आदि गुणों से युक्त मनुष्यों को यह जानना योग्य है कि प्रश्न और उत्तर के व्यवहार के किये विना परमेश्वर को जानने और शिल्पविद्या सिद्ध विमानादि रथों को कभी बनाने को शक्य नहीं और जो उनमें गुण हैं, वे भी इससे इनके विज्ञान होने के लिये सदैव प्रयत्न करना चाहिये॥१८॥ _
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।।