ऋग्वेद 1.25.15

 उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या। अस्माकमुदरेष्वा॥१५॥१८॥

उत। यः। मानुषेषु। आ। यशः। चक्रे। असामि। आ। अस्माकम्। उदरेषु। आ॥ १५॥

पदार्थ:-(उत) अपि (यः) जगदीश्वरो वायुर्वा (मानुषेषु) नृव्यक्तिषु (आ) अभितः (यशः) कीर्तिमन्नं वा। यश इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (चक्रे) कृतवान् (असामि) समस्तम् (आ) समन्तात् (अस्माकम्) मनुष्यादिप्राणिनम् (उदरेषु) अन्तर्देशेषु (आ) अभितोऽर्थे।। १५॥ ___

अन्वयः-योऽस्माकमुदरेषूतापि बहिरसामि यश आचक्रे यो मानुषेषु जीवेषूतापि जडेषु पदार्थेष्वाकीर्त्ति प्रकाशितवानस्ति, स वरुणो जगदीश्वरो विद्वान् वा सकलैर्मानवैः कुतो नोपासनीयो जायेत॥१५॥

भावार्थ:-येन सृष्टिकर्त्तान्तर्यामिणा जगदीश्वरेण परोपकाराय जीवानां तत्तकर्मफलभोगाय समस्तं जगत्प्रतिकल्पं विरच्यते, यस्य सृष्टौ बाह्याभ्यन्तरस्थो वायुः सर्वचेष्टा हेतुरस्ति, विद्वांसो विद्याप्रकाशका अविद्याहन्तारश्च प्रायतन्ते, तदिदं धन्यवादार्ह कर्म परमेश्वरस्यैवाखिलैर्मनुष्यैर्विज्ञेयम्॥१५॥ __

पदार्थः-(यः) जो हमारे (उदरेषु) अर्थात् भीतर (उत) और बाहर भी (असामि) पूर्ण (यशः) प्रशंसा के योग्य कर्म को (आचक्रे) सब प्रकार से करता है, जो (मानुषेषु) जीवों और जड़ पदार्थों में सर्वथा कीर्ति को किया करता है, सो वरुण अर्थात् परमात्मा वा विद्वान् सब मनुष्यों को उपासनीय और सेवनीय क्यों न होवे।।१५॥


भावार्थ:-जिस सृष्टि करने वाले अन्तर्यामी जगदीश्वर ने परोपकार वा जीवों को उनके कर्म के अनुसार भोग कराने के लिये सम्पूर्ण जगत् कल्प-कल्प में रचा है, जिसकी सृष्टि में पदार्थों के बाहरभीतर चलने वाला वायु सब कर्मों का हेतु है और विद्वान् लोग विद्या का प्रकाश और अविद्या का हनन करने वाले प्रयत्न कर रहे हैं, इसलिये इस परमेश्वर के धन्यवाद के योग्य कर्म सब मनुष्यों को जानना चाहिये॥१५॥

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।।