ऋग्वेद 1.24.11

 तदिन्नक्तं तद्दिवा मह्यमाहुस्तयं केो हृद आ वि चष्टे

शुनःशेो यमह्वद् गृभीतः सो अ॒स्मान् राजा वरुणो मुमोक्तु॥१२॥

तत्। इत्। नक्तम्। तत्। दिवा। मह्यम्। आहुः। तत्। अयम्। केतः। हृदः। आ। वि। चष्टे। शुनःऽशेपः। यम्। आह्वत्। गृभीतः। सः। अस्मान्। राजा। वरुणः। मुमोक्तु॥ १२॥

पदार्थ:-(तत्) वेदबोधसहितं विज्ञानम् (इत्) एव (नक्तम्) रात्रौ (तत्) शास्त्रबोधयुक्तम् (दिवा) दिवसे (मह्यम्) विद्याधनमिच्छवे (आहुः) कथयन्ति (तत्) गुणदोषविवेचकः। अत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेर्लुक्। (अयम्) प्रत्यक्ष: (केतः) प्रज्ञाविशेषो बोधः। केत इति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.४) (हृदः) मनसा महात्मनो मध्ये (आ) सर्वतः (वि) विविधार्थे (चष्टे) प्रकाशयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (शुनःशेपः) शुनो विज्ञानवत इव शेपो विद्यास्पर्शो यस्य सः। श्वा शुयायी शवतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः। (निरु०३.१८) शेपः शपतेः स्पृशतिकर्मणः। (निरु०३.२१) (यम्) परमेश्वरं सूर्य वा (अह्वत्) आह्वयति। अत्र लडथै लुङ्। (गृभीतः) गृहीतःहग्रहोर्भश्छन्दसि हस्य भत्वम्। अनेनात्रः हस्य भः (स:) पूर्वोक्तो वेदविद्याभ्यासोत्पन्नो बोधः (अस्मान्) पुरुषार्थिनो धार्मिकान् (राजा) प्रकाशमानः (वरुणः) वरः (मुमोक्तु) मोचयति वा। अत्रान्त्यपक्षे लडथे लोट् बहुलं छन्दसि इति शप: लुरन्तर्गतो ण्यर्थश्च।।१२॥

_अन्वयः-विद्वांसो यन्नक्तं दिवाऽहर्निशं ज्ञानमाहुर्यश्च मह्यं हृद: केत आविचष्टे तत्तमहं मन्ये वदामि करोमि वा। यं शुन:शेपो विद्वानह्वत् येन वरुणो राजाऽस्मान् पापाद्दुःखाच्च मुमोक्तु मोचयति वा सम्यग्विदितः उपयुक्तः सन्नीश्वरः सूर्योऽपि तदा दारिद्रयं नाशयति योऽस्माभिर्गृहीत उपास्य उपकृतश्च।।१२॥

भावार्थ:-अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वेर्मनुष्यैरेवमुपदेष्टव्यं मन्तव्यं च विद्वांसो वेदा ईश्वरश्च मह्यं यं बोधमुपदिशन्ति, य चाहं शुद्धया प्रज्ञया निश्चिनोमि तमेव मया सर्वैर्युष्माभिश्च स्वीकृत्य पापाचरणाद्दूरे स्थातव्यम्॥१२॥

पदार्थ:-विद्वान् लोग (नक्तम्) रात (दिवा) दिन जिस ज्ञान का (आहुः) उपदेश करते हैं (तत्) उस और जो (मह्यम्) विद्या धन की इच्छा करने वाले मेरे लिये (हृदः) मन के साथ आत्मा के बीच में(केत:) उत्तम बोध (आविचष्टे) सब प्रकार से सत्य प्रकाशित होता है (तदित्) उसी वेद बोध अर्थात् विज्ञान को मैं मानता कहता और करता हूं (यम्) जिस को (शुनःशेपः) अत्यन्त ज्ञान वाले विद्या व्यवहार के लिये प्राप्त और परमेश्वर वा सूर्य का (अह्वत्) उपदेश करते हैं, जिससे (वरुण:) श्रेष्ठ (राजा) प्रकाशमान परमेश्वर हमारी उपासना को प्राप्त होकर छुड़ावे और उक्त सूर्य भी अच्छे प्रकार जाना और क्रिया कुशलता में युक्त किया हुआ बोध (मह्यम्) विद्या धन की इच्छा करने वाले मुझ को प्राप्त होता है (स:) हम लोगों को योग्य है कि उस ईश्वर की उपासना और सूर्य का उपयोग यथावत् किया करें।।१२॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब मनुष्यों को इस प्रकार उपदेश करना तथा मानना चाहिये कि विद्वान् वेद और ईश्वर हमारे लिये जिस ज्ञान का उपदेश करते हैं तथा हम जो अपनी शुद्ध बुद्धि से निश्चय करते हैं, वही मुझ को और हे मनुष्य! तुम सब लोगों को स्वीकार करके पाप अधर्म करने से दूर रक्खा करे।।१२॥

पुन: स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।।