ऋग्वेद 1.23.4

 भगभक्तस्य ते व॒यमुर्दशेम तवाव॑सा।

मूर्द्धानं राय आरभे॥५॥१३॥

भगऽभक्तस्य। ते। वयम्। उत्। अशेम। तवा अवसा। मूर्द्धानम्। रा॒यःआऽरभै।५॥

पदार्थ:-(भगभक्तस्य) भगाः सर्वेः सेवनीया भक्ता येन तस्य (ते) तव जगदीश्वरस्य (वयम्) ऐश्वर्य्यमिच्छुकाः (उत्) उत्कृष्टार्थे (अशेम) व्याप्नुयाम। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमाच्छप: स्थाने श्नुन। (तव) (अवसा) रक्षणेन (मूर्द्धानम्) उत्कृष्टभागम् (रायः) धनसमूहस्य(आरभे) आरब्धव्ये व्यवहारे। अत्र कृत्यार्थ तवैकेन्केन्यत्वनः (अष्टा०३.४.१४) अनेन 'रभ' धातोः केन् प्रत्ययः ।।५॥

अन्वयः-हे परात्मन्! भगभक्तस्य ते तव कीर्ति यतो वयमुदशेम तस्मात्तवावसा रायो मूर्द्धानं प्राप्यारभ आरब्धव्ये व्यवहारे नित्यं प्रवद्महे॥५॥

भावार्थ:-येऽनुष्ठानेनेश्वराज्ञां व्याप्नुवन्ति त एवेश्वरात् सर्वतो रक्षणं प्राप्य सर्वेषां मनुष्याणां मध्य उत्तमैश्वर्या भूत्वा प्रशसां प्राप्नुवन्ति, कुत:? स एवेश्वरः स्वस्वकर्मानुसारेण जीवेभ्य: फलं विभज्य ददात्यतः॥५॥

पदार्थ:-हे जगदीश्वर जिससे हम लोग (भगभक्तस्य) जो सब के सेवने योग्य पदार्थों का यथा योग्य विभाग करने वाले (ते) आपकी कीर्ति को (उदशेम) अत्यन्त उन्नति के साथ व्याप्त हों कि उसमें (तव) आपकी (अवसा) रक्षणादि कृपादृष्टि से (रायः) अत्यन्त धन के (मूर्द्धानम्) उत्तम से उत्तम भाग को प्राप्त होकर (आरभे) आरम्भ करने योग्य व्यवहारों में नित्य प्रवृत्त हों अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिये नित्य प्रयत्न कर सकें॥५॥

भावार्थ:-जो मनुष्य अपने क्रिया कर्म से ईश्वर की आज्ञा में प्राप्त होते हैं, वही उससे रक्षा को सब प्रकार से प्राप्त और सब मनुष्यों में उत्तम ऐश्वर्य वाले होकर प्रशंसा को प्राप्त होते हैं, क्योंकि वही ईश्वर जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय व्यवस्था से विभाग कर फल देता है इससे।।५।

पुनस्स कीदृश इत्युपदिश्यते।

पुन: वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है