ऋग्वेद 1.22.3

या वा कशा मधुम॒त्यश्विना सूनृावती।

तयां यज्ञं मिमिक्षतम्॥३॥

या। वाम्। कशा। मधुऽमती। अश्विना। सूनृताऽवती। तया। य॒ज्ञम्। मिमिक्षतम्॥३॥

पदार्थः-(या) (वाम्) युवयोर्युवां वा (कशा) वाक्। कशेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (मधुमती) मधुरगुणा (अश्विना) प्रकाशितगुणयोरध्वर्योः। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (सूनृतावती) सूनृता प्रशस्ता बुद्धिर्विद्यते यस्यां सा। सूनृतेति वाड्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) अत्र प्रशंसाङ्के मतुप्। (तया) कशया (यज्ञम्) सुशिक्षोपदेशाख्यम् (मिमिक्षतम्) सेक्तुमिच्छतम्॥३॥

अन्वयः-हे उपदेष्टपदेश्यावध्यापकशिष्यो वां युवयोरश्विनोर्या सूनृतावती मधुमती कशाऽस्ति तया युवां यज्ञं मिमिक्षतं सेक्तुमिच्छतम्॥३॥

भावार्थ:-नैवोपदेशमन्तरा कस्यचित् किञ्चिदपि विज्ञानं वर्धते। तस्मात्सर्विद्वज्जिज्ञासुभिर्मनुष्यैर्नित्यमुपदेशः श्रवणं च कार्यामिति॥३॥ 

पदार्थ:-हे उपदेश करने वा सुनने तथा पढ़ने-पढ़ानेवाले मनुष्यो! (वाम्) तुम्हारे (अश्विना) गुणप्रकाश करनेवालों की (या) जो (सूनृतावती) प्रशंसनीय बुद्धि से सहित (मधुमती) मधुरगुणयुक्त (कशा) वाणी है, (तया) उससे तुम (यज्ञम्) श्रेष्ठ शिक्षारूप यज्ञ को (मिमिक्षतम्) प्रकाश करने की इच्छा नित्य किया करो।३।

भावार्थ:-उपदेश के विना किसी मनुष्य को ज्ञान की वृद्धि कुछ भी नहीं हो सकती, इससे सब मनुष्यों को उत्तम विद्या का उपदेश तथा श्रवण निरन्तर करना चाहिये।।३।एतं कृत्वाऽश्विनोोगेन कि भवतीत्युपदिश्यते।

इसको करके अश्वियों के योग से क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है