ऋग्वेद 1.22.15

 स्योना पृथिवि भवानृक्षरा निवेशनी

यच्छा नः शर्म स॒प्रथः॥१५॥६॥

स्योनापृथिवि। भव। अनृक्षरा। निऽवेशनीयच्छ। नः। शर्मी सऽप्रर्थः॥ १५॥

पदार्थ:-(स्योना) सुखहेतुःइदं 'सिवु'धातो रूपम् सिवेष्टे! च। (उ०३.९) अनेन नः प्रत्ययष्टेयूँरादेश्च। स्योनमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) (पृथिवि) विस्तीर्णा सती विशालसुखदात्री भूमिः। अत्र पुरुषव्यत्ययः। (भव) भवति। अत्र व्यत्ययो लडथे लोट् च। (अनृक्षरा) अविद्यमाना ऋक्षरा दुःखप्रदा: कण्टकादयो यस्यां सा (निवेशनी) निविशन्ति प्रविशन्ति यस्यां सा (यच्छ) यच्छति फलादिभिर्ददति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट। द्वयचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (न:) अस्मभ्यम् (शर्म) सुखम् (सप्रथः) यत् प्रथोभिर्विस्तृतैः पदार्थः सह वर्त्तते तत्। यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याख्यातवान्-सुखा नः पृथिवि भवानृक्षरा निवेशन्यक्षरः कण्टक ऋच्छतेः। कण्टकः कन्तपो कृन्ततेर्वा कण्टतेर्वा स्याद् गतिकर्मण उद्गततमो भवति। यच्छ नः शर्म यच्छन्तु शरणं सर्वतः पृथु। (निरु०९.३२)॥१५॥ ___

अन्वयः-येयं पृथिवी स्योनाऽनृक्षरा निवेशनी भवति सा नोऽस्मभ्यं सप्रथः शर्म यच्छ प्रयच्छति॥१५॥

भावार्थ:-मनुष्यैर्भूगर्भविद्यया गुणैर्विदितेयं भूमिरेव मूर्त्तिमतां निवासस्थानमनेकसुखहेतुः सती बहुरत्नप्रदा भवतीति वेद्यम्॥१५॥

इति षष्ठो वर्ग: समाप्तः॥

पदार्थः-जो यह (पृथिवी) अति विस्तारयुक्त (स्योना) अत्यन्त सुख देने तथा (अनृक्षरा) जिसमें दुःख देने वाले कण्टक आदि न हों (निवेशनी) और जिसमें सुख से प्रवेश कर सकें, वैसी (भव) होती है, सो (न:) हमारे लिये (सप्रथः) विस्तारयुक्त सुखकारक पदार्थ वालों के साथ (शर्म) उत्तम सुख को (यच्छ) देती है।।१५॥

भावार्थ:-मनुष्यों को योग्य है, कि यह भूमि ही सब मूर्त्तिमान् पदार्थों के रहने की जगह और अनेक प्रकार के सुखों की कराने वाली और बहुत रत्नों को प्राप्त कराने वाली होती है, ऐसा ज्ञान करें॥१५॥

यह षष्ठ वर्ग समाप्त हुआ।

अथ पृथिव्यादीनां रचको धारकश्च कोऽस्तीत्युपदिश्यते।

अब पृथिवी आदि पदार्थों का रचने और धारण करने वाला कौन है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया ह