ऋग्वेद 1.21.1

 अथैकविशस्य षडर्चस्य सूक्तस्य कण्वो मेधातिथिर्ऋषिः। इन्द्राग्नी देवते। १,३,४,६ गायत्री;

२ पिपीलिकामध्यानिचूद्गायत्री; ५ निचूद्गायत्रीच्छन्दः। षड्ज: स्वरः॥

तन्द्राग्निगुणा उपदिश्यन्ते

अब इक्कीसवें सूक्त का आरम्भ हैउसके पहिले मन्त्र में इन्द्र और अग्नि के गुण प्रकाशित किये हैं

इहेन्द्राग्नी उप ह्वये तोरित्स्तोम॑मुश्मसि

ता सोमं सोमपातमा॥१॥

दुह। इन्द्राग्नी इतिउपा ह्वये। तयोः। इत्। स्तोम॑म्उश्मसि। ता। सोम॑म्। सोमऽपातमा॥ १॥

पदार्थ:-(इह) अस्मिन् हवनशिल्पविद्यादिकर्मणि (इन्द्राग्नी) वायुवही। यो वै वायुः स इन्द्रो य इन्द्रः स वायुः। (श० ब्रा०४.१.३.१९) (उप) सामीप्ये (ह्वये) स्वीकुर्वे (तयोः) इन्द्राग्न्योः (इत्) चार्थे (स्तोमम्) गुणप्रकाशम् (उश्मसि) कामयामहे। अत्र इदन्तो मसि इति मसेरिदन्त आदेशः (ता) तौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (सोमम्) उत्पन्नं पदार्थसमूहम् (सोमपातमा) सोमानां पदार्थानामतिशयेन पालको।।१।।

अन्वयः-इह यो सोमपातमाविन्द्राग्नी सोमं रक्षतस्तावहमुपह्वये तयोरिच्च स्तोमं वयमुश्मसि॥१॥ भावार्थ:-मनुष्यैरिह वाय्वग्न्योर्गुणा जिज्ञासितव्याः । न चैतर्योर्गुणानामुपदेशश्रवणाभ्यां विनोपकारो ग्रहीतुं शक्योऽस्ति॥१॥

पदार्थ:-(इह) इस संसार होमादि शिल्प में जो (सोमपातमा) पदार्थों की अत्यन्त पालन के निमित्त और (सोमम्) संसारी पदार्थों की निरन्तर रक्षा करनेवाले (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि हैं (ता) उनको मैं (उपह्वये) अपने समीप काम की सिद्धि के लिये वश में लाता हूं, और (तयोः) उनके (इत्) और (स्तोमम्) गुणों के प्रकाश करने को हम लोग (उश्मसि) इच्छा करते हैं।॥१॥ __

भावार्थ:-मनुष्यों को वायु और अग्नि के गुण जानने की इच्छा करनी चाहिये, क्योंकि कोई भी मनुष्य उनके गुणों के उपदेश वा श्रवण के विना उपकार लेने को समर्थ नहीं हो सकते हैं॥१॥

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है