विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद्भद्रं तन्नऽआ सुव॥ ऋ०५.८२.५॥
अथाष्टर्चस्य विंशस्य सूक्तस्य काण्वो मेधातिथिर्ऋषिः। ऋभवो देवताः। १, २, ६, ७
गायत्री; ३ विराड्गायत्री; ४ निवृद्गायत्री; ५, ८ पिपीलिकामध्यानिवृद्गायत्री च छन्दः। __
षड्जः स्वरः॥
तत्र पूर्वमभुस्तुतिः प्रकाश्यते
अब दूसरे अध्याय का प्रारम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में ऋभु की स्तुति का प्रकाश किया है
अयं दे॒वाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया।
अकारि रत्नधातमः॥१॥
अयम्। देवाय। जन्मने। स्तोमः। विप्रेभिः। आसया। अारि। रत्नऽधातमः॥१॥
पदार्थ:-(अयम्) विद्याविचारेण प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानः (देवाय) दिव्यगुणभोगयुक्ताय (जन्मने) वर्तमानदेहोपयोगाय पुनः शरीरधारणेन प्रादुर्भावाय वा (स्तोमः) स्तुतिसमूहः (विप्रेभिः) मेधाविभिः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिसः स्थान ऐसभावः। (आसया) मुखेन। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इत्यास्यशब्दस्य यलोपः। सुपां सुलुग्० इति विभक्तेर्याजादेशश्च। (अकारि) क्रियते। अत्र लडथै लुङ्(रत्नधातमः) रत्नानि रमणीयानि सुखानि दधाति येन सोऽतिशयितः॥१॥
अन्वयः-ऋभुभिर्विप्रेभिरासया देवाय जन्मने यादृशो रत्नधातमोऽयँ स्तोमोऽकारि क्रियते स तादृशजन्मभोगकारी जायते।।१।।
भावार्थ:-अत्र पुनर्जन्मविधानं विज्ञेयम्। मनुष्यैर्यादृशानि कर्माणि क्रियन्ते तादृशानि जन्मानि भोगाश्च प्राप्यन्ते।।१॥
पदार्थ:-(विप्रेभिः) ऋभु अर्थात् बुद्धिमान् विद्वान् लोग (आसया) अपने मुख से (देवाय) अच्छे-अच्छे गुणों के भोगों से युक्त (जन्मने) दूसरे जन्म के लिये (रत्नधातमः) रमणीय अर्थात् अतिसुन्दरता से सुखों की दिलानेवाली जैसी (अयम्) विद्या के विचार से प्रत्यक्ष की हुई परमेश्वर की (स्तोमः) स्तुति है, वह वैसे जन्म के भोग करनेवाली होती है।।१।
भावार्थ:-इस मन्त्र में पुनर्जन्म का विधान जानना चाहिये। मनुष्य जैसे कर्म किया करते हैं, वैसे ही जन्म और भोग उनको प्राप्त होते हैं।।१॥
पुनस्ते ऋभवः कीदृशा इत्युपदिश्यते।
फिर वे विद्वान् कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है