ऋग्वेद 1.18.3

 मा नः शं] अररुषो धूर्तिः प्रणङ् मर्त्यस्य।

रक्षा णो ब्रह्मणस्पते॥३॥

मा। नः। शंसः। अररुषः। धूर्त्तिः। प्रणक्। मर्त्यस्य। रक्षा नः। ब्रह्मणस्पते॥३॥

पदार्थ:-(मा) निषेधार्थे (न:) अस्माकम् (शंस:) शंसन्ति यत्र सः (अररुषः) अदातुःरा दाने इत्यस्मात्क्वसुस्ततः षष्ठयेकवचनम्। (धूर्तिः) हिंसकः (प्रणक्) नश्यतु। अत्र लोडर्थे लुङ्। मन्त्रे घसह्वरणश० (अष्टा० २.४.८०) अनेन सूत्रेण च्लेर्लुक्। (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य (रक्ष) पालय। व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (न:) अस्मानस्माकं वा (ब्रह्मणः) वेदस्य ब्रह्माण्डस्य वा (पते) स्वामिन्। षष्ठ्याः पति० विसर्जनीयस्य सत्वम्॥३॥

अन्वयः-हे ब्रह्मणस्पते जगदीश्वर! त्वमररुषो मर्त्यस्य सकाशान्नोऽस्मान् रक्ष, यतः स नोऽस्माकं मध्ये कश्चिद्भूतिर्मनुष्यो न भवेत्, भवत्कृपयाऽस्माकं शंसो मा प्रणक् कदाचिन्मा नश्यतु॥३॥

भावार्थ:-नैव केनचिन्मनुष्येण धूर्तस्य मनुष्यस्य कदाचित्सङ्गः कर्त्तव्यःन चैवान्यायेन कस्यचिद्धिंसनं कर्त्तव्यम्, किन्तु सर्वे: सर्वस्य न्यायेनैव रक्षा विधेयेति॥३॥

पदार्थ:-हे (ब्रह्मणस्पते) वेद वा ब्रह्माण्ड के स्वामी जगदीश्वर! आप (अररुषः) जो दान आदि धर्मरहित मनुष्य है, उस (मर्त्यस्य) मनुष्य के सम्बन्ध से (न:) हमारी (रक्ष) रक्षा कीजिये, जिससे कि वह (नः) हम लोगों के बीच में कोई मनुष्य (धूर्तिः) विनाश करनेवाला न हो और आपकी कृपा से जो (नः) हमारा (शंसः) प्रशंसनीय यज्ञ अर्थात् व्यवहार है, वह (मा पृणक्) कभी नष्ट न होवे॥३॥ ___

भावार्थ:-किसी मनुष्य को धूर्त अर्थात् छल कपट करनेवाले मनुष्य का संग न करना तथा अन्याय से किसी की हिंसा न करनी चाहिये, किन्तु सब को सब की न्याय ही से रक्षा करनी चाहिये।॥३॥

अथेन्द्रादिकृत्यान्युपदिश्यन्ते।

अगले मन्त्र में इन्द्रादिकों के कार्यों का उपदेश किया है