ऋग्वेद 1.17.10

 प्र वामश्नोतु सुष्टुतिरिन्द्रावरुण यां हुवे

यामधार्थे सधस्तुतिम्॥९॥३३॥४॥

प्रा वाम्। अश्नोतु। सुऽस्तुतिः। इन्द्रावरुणा। याम्। हुवे। याम्। क्रुधाथे इतिी सुधऽस्तुतिम्।।९।।

पदार्थ:-(प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (वाम्) यौ तौ वा। अत्र व्यत्ययः। (अश्नोतु) व्याप्नोतु (सुष्टुतिः) शोभना चासौ गुणस्तुतिश्च सा (इन्द्रावरुणा) पूर्वोक्तौ। अत्रापि सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशो वर्णव्यत्ययेन ह्रस्वत्वं च। (याम्) स्तुतिम् (हुवे) आददे। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च। (याम्) शिल्पक्रियाम् (ऋधाथे) वर्धयतः। अत्र व्यत्ययो बहुलं छन्दसि इति विकरणाभावश्च (सधस्तुतिम्) स्तुत्या सह वर्त्तते ताम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन हकारस्य धकारः॥९॥

अन्वयः-अहं यथात्रेयं सुष्टुतिः प्राश्नोतु प्रकृष्टतया व्याप्नोतु तथा हुवे वां यो मित्रावरुणौ यां सधस्तुतिमृधाथे वर्धयतस्तां चाहं हुवे॥९॥ __

भावार्थ:-मनुष्यैर्यस्य पदार्थस्य यादृशा गुणाः सन्ति तादृशान् सुविचारेण विदित्वा तैरुपकार: सदैव ग्राह्य इतीश्वरोपदेशः।।९।।

पूर्वस्य षोडशसूक्तस्यार्थानुयोगिनोर्मित्रावरुणार्थयोरत्र प्रतिपादनात्सप्तदशसूक्तार्थेन सह तदर्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्।

इदमपि सूक्तं सायणाचार्यादिभियूरोपदेशवासिभिरध्यापकविलसनाख्यादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्॥ ___

इति चतुर्थोऽनुवाकः सप्तदशं सूक्तं त्रयस्त्रिंशो वर्गश्च समाप्तः॥

पदार्थ:-मैं जिस प्रकार से इस संसार में जिन इन्द्र और वरुण के गुणों की यह (सुष्टुतिः) अच्छी स्तुति (प्राश्नोतु) अच्छी प्रकार व्याप्त होवे, उसको (हुवे) ग्रहण करता हूं, और (याम्) जिस (सधस्तुतिम्) कीर्ति के साथ शिल्पविद्या को (वाम्) जो (इन्द्रावरुणौ) इन्द्र और वरुण (ऋधाथे) बढ़ाते हैं, उस शिल्पविद्या को (हुवे) ग्रहण करता हूं।।९॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जिस पदार्थ के जैसे गुण हैं, उनको वैसे ही जानकर और उनसे सदैव उपकार ग्रहण करना चाहिये, इस प्रकार ईश्वर का उपदेश है॥९॥

पूर्वोक्त सोलहवें सूक्त के अनुयोगी मित्र और वरुण के अर्थ का इस सूक्त में प्रतिपादन करने से इस सत्रहवें सूक्त के अर्थ सोलहवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति करनी चाहिये

इस सूक्त का भी अर्थ सायणाचार्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने कुछ का कुछ ही वर्णन किया है

यह चौथा अनुवाक, सत्रहवां सूक्त और तेतीसवां वर्ग समाप्त हुआ।