ऋग्वेद 1.15.5

 ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोम॑मृत॒रनु

तवेद्धि सख्यमस्तृतम्॥५॥

ब्राह्मणात्। इन्द्र। राधसः। पिबा सोमम्। ऋतून्। अनु। तव। इत्। हि। सख्यम्। अस्तृतम्।।५॥

पदार्थ:-(ब्राह्मणात्) ब्राह्मणो बृहतोऽवयवात्अत्र अनुदात्तादेश्च। (अष्टा०४.३.१४०) इत्यवयवार्थेऽञ् प्रत्ययः। (इन्द्र) ऐश्वर्य्यजीवनहेतुत्वाद्वायुः। (राधसः) पृथिव्यादिधनात्। अत्र सर्वधातुभ्योऽसुन् इत्यसुन् प्रत्ययः । (पिब) पिबति गृह्णाति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट, द्वयचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (सोमम्) पदार्थरसम् (ऋतूनू) रसाहरणसाधकान् (अनु) पश्चात् (तव) तस्य प्राणरूपस्य (इत्) एव (हि) खलु (सख्यम्) मित्रस्य भाव इव (अस्तृतम्) हिंसारहितम्॥५॥ ____

अन्वयः-य इन्द्रो वायुाह्मणाद्राधसोऽन्तून् सोमं पिब पिबति गृह्णाति हि खलु तस्य वायोरस्तृतं सख्यमस्ति॥५॥

भावार्थ:-मनुष्यैर्जगत्स्रष्ट्रेश्वरेण ये ये यस्य यस्य वाय्वा पदार्थस्य मध्ये नियमा स्थापितास्तान् विदित्वा कार्याणि साधनीयानि, तत्सिद्धया सर्वर्तुषु सर्वप्राण्यनुकूलं हितसम्पादनं कार्यम्। युक्त्या सेविता एते मित्रवद्भवन्त्ययुक्त्या च शत्रुवदिति वेद्यम्॥५॥

पदार्थ:-जो (इन्द्र) ऐश्वर्य वा जीवन का हेतु वायु (ब्राह्मणा) बड़े का अवयव (राधसः) पृथिवी आदि लोकों के धन से (अनुऋतून्) अपने-अपने प्रभाव से पदार्थों के रस को हरनेवाले वसन्त आदि ऋतुओं के अनुक्रम से (सोमम्) सब पदार्थों के रस को (पिब) ग्रहण करता है, इससे (हि) निश्चय से (तव) उस वायु का पदार्थों के साथ (अस्तृतम्) अविनाशी (सख्यम्) मित्रपन है।।५।

भावार्थ:-मनुष्यों को योग्य है कि जगत् के रचनेवाले परमेश्वर ने जो-जो जिस-जिस वायु आदि पदार्थों में नियम स्थापन किये हैं उन-उनको जान कर कार्यों को सिद्ध करना चाहिये। और उन से सिद्ध किये हुए धन से सब ऋतुओं में सब प्राणियों के अनुकूल हित सम्पादन करना चाहिये, तथा युक्ति के साथ सेवन किये हुए पदार्थ मित्र के समान होते और इससे विपरीत शत्रु के समान होते हैं, ऐसा जानना चाहिये॥५॥

इदानीं वायुविशेषौ प्राणोदानावृतुना सह कि कुरुत इत्युपदिश्यते।

अब वायुविशेष प्राण वा उदान ऋतुओं के साथ क्या- क्या प्रकाश करते हैं, इस बात का उपदेश अगले मन्त्र में किया है