ऋग्वेद 1.14.6

 घृतपृष्ठा मोयुजो ये त्वा वर्हन्ति वह्नयः

आ देवान्त्सोमपीतये॥६॥२६॥

घृतऽपृष्ठाः। मनःऽयुजः। ये। त्वा। वहन्ति। वह्नयः। आ। देवान्। सोमपीतये॥६॥

पदार्थ:-(घृतपृष्ठाः) घृतमुदकं पृष्ठ आधारे येषां ते (मनोयुजः) मनसा विज्ञानेन युज्यन्ते ते। अत्र सत्सूद्विष० (अष्टा०३.२.६१) अनेन कृतो बहुलम् इति कर्मणि क्विप्। (ये) विद्युदादयश्चतुर्थमन्त्रोक्ता: (त्वा) तमलं कर्तुं योग्यं यज्ञम् (वहन्ति) प्रापयन्ति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (वह्नयः) वहन्ति प्रापयन्ति वार्ताः पदार्थान् यानानि च यैस्ते। अत्र वहिश्रिश्रुयु०। (उणा०४.५३) अनेन करणे निः प्रत्ययः। (आ) समन्तात् क्रियायोगे (देवान्) दिव्यगुणान् भोगान्तून्वा। ऋतवो वै देवाः। (श० ब्रा०७.२.२.२६) (सोमपीतये) सोमानां पदार्थानां पीतिः पानं यस्मिंस्तस्मै यज्ञाय॥६॥

अन्वयः-हे विद्वांसो! य इमे युक्त्या सम्प्रयोजिता घृतपृष्ठा मनोयुजो वह्नयो विद्युदादयः सोमपीतये त्वा तमेतं यज्ञं देवाँश्चावहन्ति, ते सर्वेर्मनुष्यैर्यथा तद्विदित्वा कार्यसिद्धये सम्प्रयोज्याः॥६॥

भावार्थ:-ये स्तनयित्न्वादयस्त एव जलमुपरि गमयन्त्यागगमयन्ति वा ताराख्येन यन्त्रेण सञ्चालिता विद्युन्मनोवेगवद्वार्ता देशान्तरं प्रापयति। एवं सर्वेषां पदार्थानां सुखानां च प्रापका एत एव सन्तीतीश्वराज्ञापनम्॥६॥

इति षड्विंशो वर्गः समाप्तः॥


पदार्थ:-हे विद्वानो! जो युक्ति से संयुक्त किये हुए (घृतपृष्ठाः) जिनके पृष्ठ अर्थात् आधार में जल है (मनोयुजः) तथा जो उत्तम ज्ञान से रथों में युक्त किये जाते (वह्नयः) वार्ता पदार्थ वा यानों को दूर देश में पहुंचानेवाले अग्नि आदि पदार्थ हैं, जो (सोमपीतये) जिसमें सोम आदि पदार्थों का पीना होता है, उस यज्ञ के लिये (त्वा) उस भूषित करने योग्य यज्ञ को और (देवान्) दिव्यगुण दिव्यभोग और वसन्त आदि ऋतुओं को (आवहन्ति) अच्छी प्रकार प्राप्त करते हैं, उनको सब मनुष्य यथार्थ जानके अनेक कार्यों को सिद्ध करने के लिये ठीक-ठीक प्रयुक्त करना चाहिये॥६॥

भावार्थ:-जो मेघ आदि पदार्थ हैं, वे ही जल को ऊपर नीचे अर्थात् अन्तरिक्ष को पहुंचाते और वहां से वर्षाते हैं, और ताराख्य यन्त्र से चलाई हुई बिजुली मन के वेग के समान वार्त्ताओं को एकदेश सेदूसरे देश में प्राप्त करती है। इसी प्रकार सब सुखों को प्राप्त करानेवाले ये ही पदार्थ हैं, ऐसी ईश्वर की आज्ञा है।॥६॥

यह छब्बीसवां वर्ग समाप्त हुआ

अथाग्निशब्देनेश्वरभौतिकावुपदिश्यते।

अब अगले मन्त्र में अग्निशब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है