ऋग्वेद 1.13.4

 ईडितःअग्ने सुखतमे रथै दे॒वाँ ईडित आ वह।

अस होता मनुर्हितः॥४॥

अग्ने। सुखऽतमे। रथे। देवान्। ईडितः। आ। वह। असि। होता मनुः। हितः॥४॥

पदार्थ:-(अग्ने) भौतिकोऽयमग्निः (सुखतमे) अतिशयितानि सुखानि यस्मिन् (रथ) गमनहेतो रमणसाधने विमानादौ (देवान्) विदुषो भोगान्वा (ईडितः) मनुष्यैरध्येषितोऽधिष्ठितः (आ) समन्तात् (वह) वहति प्रापयति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (असि) अस्ति (होता) सुखदाता (मनुः) विद्वद्भिः __

अन्वयः-मनुष्यैर्योऽग्निर्मनु:तेडितोऽस्ति स सुखतमे रथे हितः स्थापितः सन् देवानावहय समन्ताद्वहति देशान्तरं प्रापयति॥४॥

भावार्थ:-मनुष्यैर्बहुकलासमन्वितो भूजलान्तरिक्षगमनहेतुरग्निर्जलादिना सह सम्प्रयोजितस्त्रिविधे रथे हितकारी सुखतमो भूत्वा बहुकार्यसिद्धिप्रापको भवतीति बोध्यम्॥४॥

पदार्थ:-जो (अग्ने) भौतिक अग्नि (मनुः) विद्वान् लोग जिसको मानते हैं तथा (होता) सब सुखों का देने और (ईडितः) मनुष्यों को स्तुति करने योग्य (असि) है, वह (सुखतमे) अत्यन्त सुख देने तथा (रथे) गमन और विहार करानेवाले विमान आदि सवारियों में (हितः) स्थापित किया हुआ (देवान्) दिव्य भोगों को (आवह) अच्छे प्रकार देशान्तर में प्राप्त करता है।।४।।

भावार्थ:-मनुष्यों को बहुत कलाओं से संयुक्त पृथिवी जल और अन्तरिक्ष में गमन का हेतु तथा अग्नि वा जल आदि पदार्थों से संयुक्त तीन प्रकार का रथ कल्याणकारक तथा अत्यन्त सुख देनेवाला होकर बहुत उत्तम-उत्तम कार्यों की सिद्धि को प्राप्त करानेवाला होता है।४॥

पुन: स एवं सम्प्रयुक्तः किं करोतीत्युपदिश्यते।

फिर वह भौतिक अग्नि उक्त प्रकार से क्रिया में युक्त किया हुआ क्या करता है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है