पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न विदस्यन्त्यूतयः
यदि वाज॑स्य॒ गोम॑तः स्तोतृभ्यो मंहते मघम्॥३॥
पूर्वीः। इन्द्रस्य। रा॒तयः। न। वि। दस्यन्ति। ऊतयः। यदि। वाज॑स्य। गोऽमतः। स्तोऽतृभ्यः। मंहते। मघम्॥३॥
पदार्थ:-(पूर्वीः) पूर्व्यः सनातन्यःसुपां सुलुगिति पूर्वसवर्णादेशः। (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य सभासेनाध्यक्षस्य वा (रातयः) दानानि (न) निषेधार्थे (वि) क्रियायोगे (दस्यन्ति) उपक्षयन्ति (ऊतयः) रक्षणानि (यदि) आकांक्षार्थे (वाजस्य) वजन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यस्मिन् व्यवहारे तस्य (गोमतः) सृष्टिगुणांश्च ये तेभ्यो धार्मिकेभ्यो विद्वद्भयः (मंहते) ददातिमंहत इति दानकर्मसु पठितम्(निघं०३.२०) (मघम्) प्रकृष्टं विद्यासुवर्णादिधनम्॥३॥ ___
अन्वयः-यदीन्द्रः स्तोतृभ्यो वाजस्य गोमतो मघं मंहते तमुस्यैताः पूर्को रातय ऊतयो न विदस्यन्ति नैवोपक्षयन्ति॥३॥
भावार्थ:-अत्रापि श्लेषालङ्कारः। यथेश्वरस्य जगति दानरक्षणानि नित्यानि न्याययुक्तानि कर्माणि सन्ति, तथैव मनुष्यैरपि प्रजायां विद्याऽभयदानानि नित्यं कार्याणियदीश्वरो न स्यात्तींद जगत्कथमुत्पद्येत, यदीश्वरः सर्वमुत्पाद्य न दद्यात्तर्हि मनुष्याः कथं जीवेयुस्तस्मात्सकलकार्योत्पादक: सर्वसुखदातेश्वरोऽस्ति, नेतर इति मन्तव्यम्।।३।।
पदार्थ:-(यदि) जो परमेश्वर वा सभा और सेना का स्वामी (स्तोतृभ्यः) जो जगदीश्वर वा सृष्टि के गुणों की स्तुति करनेवाले धर्मात्मा विद्वान् मनुष्य हैं, उनके लिये (वाजस्य) जिसमें सब सुख प्राप्त होते हैं उस व्यवहार, तथा (गोमतः) जिसमें उत्तम पृथिवी, गौ आदि पशु और वाणी आदि इन्द्रियां वर्त्तमान हैं, उसके सम्बन्धी (मघम्) विद्या और सुवर्णादि धन को (मंहते) देता है, तो इस (इन्द्रस्य)परमेश्वर तथा सभा सेना के स्वामी की (पूर्व्यः) सनातन प्राचीन (रातयः) दानशक्ति तथा (ऊतयः) रक्षा हैं, वे कभी (न) नहीं (विदस्यन्ति) नाश को प्राप्त होती, किन्तु नित्य प्रति वृद्धि ही को प्राप्त रहती हैं।॥३॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में भी श्लेषालङ्कार है। जैसे ईश्वर वा राजा की इस संसार में दान और रक्षा निश्चल न्याययुक्त होती हैं, वैसे अन्य मनुष्यों को भी प्रजा के बीच में विद्या और निर्भयता का निरन्तर विस्तार करना चाहिये। जो ईश्वर न होता तो यह जगत् कैसे उत्पन्न होता। तथा जो ईश्वर सब पदार्थों को उत्पन्न करके सब मनुष्यों के लिये नहीं देता तो मनुष्य लोग कैसे जी सकते? इससे सब कार्यों का उत्पन्न करने और सब सुखों का देनेवाला ईश्वर ही है, अन्य कोई नहीं, यह बात सब को माननी चाहिये॥३॥
पुनरिन्द्रशब्देन सूर्य्यसेनापतिगुणा उपदिश्यन्ते।
फिर अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से सूर्य और सेनापति के गुणों का उपदेश किया है