ऋग्वेद 1.12.6

 अग्निाग्निः समिध्यते कविय॒हप॑तिर्युवा।

हुव्य॒वाड् जुह्वास्यः॥६॥२२॥

अग्निना। अग्निः। सम्। दुध्यते। कविः। गृहऽप॑तिः। युवा। हुव्यवाट। जुहुऽआस्यः॥६॥

पदार्थ:-(अग्निना) व्यापकेन विद्युदाख्येन (अग्नि:) प्रसिद्धो रूपवान् दहनशीलः पृथिवीस्थ: सूर्यलोकस्थश्च (सम्) सम्यगर्थम् (इध्यते) प्रदीप्यते (कविः) क्रान्तदर्शन: (गृहपतिः) गृहस्य स्थानस्य तत्स्थस्य वा पतिः पालनहेतुः (युवा) यौति मिश्रयति पदार्थैः सह पदार्थान् वियोजयति वा (हव्यवाट) यो हुतं द्रव्यं देशान्तरं वहति प्रापयति सः (जुह्वास्यः) जुहोत्यस्यां सा जुहूर्चाला साऽस्यं मुखं यस्य सः॥६॥

अन्वयः-मनुष्यैर्यो जुह्वास्यो युवा हव्यवाट् कविगृहपतिरग्निरग्निना समिध्यते स कार्यसिद्धये सदा सम्प्रयोज्यः॥६॥

भावार्थ:-योऽयं सर्वपदार्थमिश्रो विद्युदाख्योऽग्निरस्ति तेनैव प्रसिद्धो सूर्य्याग्नी प्रकाश्येते पुनरदृष्टौ सन्तौ तद्रूपावेव भवतः। मनुष्यैर्यद्यनयोर्गुणविद्याः सम्यग्गृहीत्वोपकारः क्रियेत तर्हानेके व्यवहारा: सिद्धयेयुस्तैरसंख्यातानन्दप्राप्तिः सर्वेभ्यो नित्यं भवतीत्याह जगदीश्वरः॥६॥

इति द्वाविंशो वर्ग समाप्तः॥

पदार्थ:-मनुष्यों को उचित है कि जो (जुह्वास्यः) जिसका मुख तेज ज्वाला और (कविः) क्रान्तदर्शन अर्थात् जिसमें स्थिरता के साथ दृष्टि नहीं पड़ती, तथा जो (युवा) पदार्थों के साथ मिलने और उनको पृथक्-पृथक् करने (हव्यवाट) होम किये हुए पदार्थों को देशान्तरों में पहुंचाने और (गृहपतिः) स्थान तथा उनमें रहने वालों का पालन करनेवाला है, उस से (अग्निः) यह प्रत्यक्ष रूपवान् पदार्थों को जलाने, पृथिवी और सूर्य्यलोक में ठहरनेवाला अग्नि (अग्निना) बिजुली से (समिध्यते) अच्छी प्रकार प्रकाशित होता है, वह बहुत कामों को सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त करना चाहिये॥६॥

भावार्थ:-जो यह सब पदार्थों में मिला हुआ विद्युद्प अग्नि कहाता है, उसी में प्रत्यक्ष यह सूर्य्यलोक और भौतिक अग्नि प्रकाशित होते हैं, और फिर जिसमें छिपे हुए विद्युद्प हो के रहते हैं, जो इन के गुण और विद्या को ग्रहण करके मनुष्य लोग उपकार करें, तो उन से अनेक व्यवहार सिद्ध होकर उनको अत्यन्त आनन्द की प्राप्ति होती है, यह जगदीश्वर का वचन है॥६॥

यह बाईसवां वर्ग समाप्त हुआ

अथाग्निशब्देनेश्वरभौतिकार्थावुपदिश्यते।

अगले मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है