ऋग्वेद 1.10.2

 यत्सा!: सानुमारुहृद् भूर्यस्पष्ट कर्वम्।

तदिन्द्रो अर्थ चेतति यूथेन वृष्णिरैजति॥२॥

यत्सानौः। सानुम्आअसैहत्। भूरिअस्पष्ट। कर्वम्। तत्इन्द्रः। अर्थम्। चेतति। यूथेनवृष्णिः । एजति।।२॥

पदार्थ:-(यत्) यस्मात् (सानो:) पर्वतस्य शिखरात् संविभागात्कर्मणः सिद्धेर्वा। दृसनिजनि० (उणा०१.३) अनेन सनेर्जुण्प्रत्ययः। अथवा 'षोऽन्तकर्मणि' इत्यस्माद् बाहुलकान्नुः। (सानुम्) यथोक्तं त्रिविधमर्थम् (आ) धात्वर्थे (अरुहत्) रोहति। अत्र लडर्थे लङ। विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने शः। (भूरि) बहु। भूरीति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) अदिसदिभू० (उणा०४.६६) अनेन भूधातो: क्तिन् प्रत्ययः। (अस्पष्ट) स्पशते। अत्र लडर्थे लङ् बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (कर्ध्वम्) कर्तुं योग्यं कार्यम्। अत्र करोतेस्त्वन् प्रत्ययः। (तत्) तस्मात् (इन्द्रः) सर्वज्ञ ईश्वरः (अर्थम्) अर्तुं ज्ञातुं प्राप्तुं गुणं द्रव्यं वा। उषिकुषिगार्तिभ्यः स्थन्। (उणा०२.४) अनेनार्तेः स्थन् प्रत्ययः। (चेतति) संज्ञापयति प्रकाशयति वा। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (यूथेन) सुखप्रापकपदार्थसमूहेनाथवा वायुगणेन सह। तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। (उणा०२.१२) अनेन यूथशब्दो निपातितः। (वृष्णि:) वर्षति सुखानि वर्षयति वा। सृवृषिभ्यां कित्। (उणा०४.५१) अनेन वृषधातोर्निः प्रत्ययः स च कित्। (एजति) कम्पते॥२॥

अन्वयः-यूथेन वायुगणेन सह वृष्णिः सूर्यकिरणसमूहः सानोः सानुं भूर्यारुहत् स्पशते राजति चलति चालयति वा, यो मनुष्यो यत्सानोः सानुं कर्मणः कर्मत्वं भूर्यारुहत्, अस्पष्टेजति तस्मै इन्द्रः परमात्मा तत्तस्मात् सानो: सानुमर्थं भूरि चेतति ज्ञापयति॥२॥

भावार्थ:-इवशब्दानुवृत्त्याऽत्राप्युपमालङ्कारःयथा सूर्यः सन्मुखस्थान् वायुना सह पुनः पुनः क्रमेणात्यन्तमाक्रम्याकर्ण्य प्रकाश्य भ्रामयति, तथैव यो मनुष्यो विद्यया कर्त्तव्यानि बहूनि कर्माणि निरन्तरं सम्पादयितुं प्रवर्त्तते, स एव साधनसमूहेन सर्वाणि कार्याणि साधितुं शक्नोति। अस्यामीश्वरसृष्टावेवंभूतो मनुष्यः सुखानि प्राप्नोति। ईश्वरोऽपि तमेवानुगृह्णति॥२॥

पदार्थ:-जैसे (यूथेन) वायुगण अथवा सुख के साधन हेतु पदार्थों के साथ (वृष्णिः) वर्षा करनेवाला सूर्य अपने प्रकाश करके (सानोः) पर्वत के एक शिखर से (सानुम्) दूसरे शिखर को (भूरि) बहुधा (आरुहत्) प्राप्त होता (अस्पष्ट) स्पर्श करता हुआ (एजति) क्रम से अपनी कक्षा में घूमता और घुमाता है, वैसे ही जो मनुष्य क्रम से एक कर्म को सिद्ध करके दूसरे को (कर्ध्वम्) करने को (भूरि) बहुधा (आरुहत्) आरम्भ तथा (अस्पष्ट) स्पर्श करता हुआ (एजति) प्राप्त होता है, उस पुरुष के लिये (इन्द्रः) सर्वज्ञ ईश्वर उन कर्मों के करने को (सानोः) अनुक्रम से (अर्थम्) प्रयोजन के विभाग के साथ (भूरि) अच्छी प्रकार (चेतति) प्रकाश करता है।।२॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में भी 'इव' शब्द की अनुवृत्ति से उपमालङ्कार समझना चाहिये। जैसे सूर्य्य अपने सम्मुख के पदार्थों को वायु के साथ वारंवार क्रम से अच्छी प्रकार आक्रमण, आकर्षण और प्रकाश करके सब पृथिवी लोकों को घुमाता है, वैसे ही जो मनुष्य विद्या से करने योग्य अनेक कर्मों को सिद्ध करने के लिये प्रवृत्त होता है, वही अनेक क्रियाओं से सब कार्यों के करने को समर्थ हो सकता तथा ईश्वर की सृष्टि में अनेक सुखों को प्राप्त होता, और उसी मनुष्य को ईश्वर भी अपनी कृपादृष्टि से देखता है, आलसी को नहीं॥२॥

अथेन्द्रशब्देनेश्वरसूर्य्यावदिश्यते।

अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर और सूर्य्यलोक का प्रकाश किया है