ऋग्वेद 1.2.4

 इन्द्रवायू डुमे सुता उप प्रोभिरा गतम्।

इन्दवो वामुशन्ति हि॥४॥

इन्द्रवायू इति। इमे। सुताः। उप। प्रय:ऽभिः। आ। गतम्। इन्दवः। वाम्। शन्ति। हि॥४॥ पदार्थः-(इन्द्रवायू) इमो प्रत्यक्षौ सूर्यपवनौ। इन्द्रेण रोचना दिवो दृळानि दंहितानि च। स्थिराणि न पराणुदे॥(ऋ०८.१४.९) ययेन्द्रेण सूर्यलोकेन प्रकाशमानाः किरणा धृताः, एवं चस्वाकर्षणशक्त्या पृथिव्यादीनि भूतानि दृढानि पुष्टानि स्थिराणि कृत्वा इंहितानि धारितानि सन्ति। न पराणुदे अतो नैव स्वस्वकक्षां विहायेतस्ततो भ्रमणाय समर्थानि भवन्ति।

इमे चिदिन्द्र रोदसी अपारे यत्संगृभ्णा मघवन् काशिरित्तै। (ऋ०३.३०.५) इमे चिदिन्द्र रोदसी रोधसी द्यावापृथिव्यौ विरोधनाद्रोधः (कूलं निरुणद्धि स्रोत: कूलं) रुजतेर्विपरीताल्लोष्टोऽविपर्ययेणापारे दूरपारे यत्संगृभ्णासि मघवन् काशिस्ते महान्। अहस्तमिन्द्र संपिणक्कुणारुम्। (ऋ०३.३०.८) अहस्तमिन्द्र कृत्वा संपिण्ढि परिक्वणनं मेघम्। (निरु०६.१)

यतोऽयं सूर्यलोको भूमिप्रकाशौ धारितवानस्ति, अत एव पृथिव्यादीनां निरोधं कुर्वन् पृथिव्यां मेघस्य च कूलं स्रोतश्चाकर्षणेन निरुणद्धि। यथा बाहुवेगेनाकाशे प्रतिक्षिप्तो लोष्ठो मृत्तिकाखण्ड: पुनर्विपर्ययेणाकर्षणाद् भूमिमेवागच्छति, एवं दूरे स्थितानपि पृथिव्यादिलोकान् सूर्य्य एव धारयतिसोऽयं सूर्य्यस्य महानाकर्षः प्रकाशश्चास्ति। तथा वृष्टिनिमित्तोऽप्ययमेवास्ति। इन्द्रो वै त्वष्टा। (ऐ०६.१०) सूर्यो भूम्यादिस्थस्य रसस्य मेघस्य च छेत्तास्ति। एतानि भौतिकवायुविषयाणि 'वायवायाहि०' इति मन्त्रप्रोक्तानि प्रमाणान्यत्रापि ग्राह्याणि। ___

(इमे सुताः) प्रत्यक्षभूताः पदार्थाः (उप) समीपम् (प्रयोभिः) तृप्तिकरैरन्नादिभिः पदार्थैः सहप्रीञ् तर्पणे कान्तौ चेत्यस्मादौणादिकोऽसुन् प्रत्ययः(आगतम्) आगच्छतः। लोट्मध्यमद्विवचनम्। बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। अनुदात्तोपदेशेत्यनुनासिकलोपः। (इन्दवः) जलानि क्रियामया यज्ञाः प्राप्तव्या भोगाश्च। इन्दुरित्युदकनामसु पठितम्। (निघं० १.१२) यज्ञनामसु। (निघ०३.१७) पदनामसु च। (निघं०५.४) (वाम्) तौ (उशन्ति) प्रकाशन्ते (हि) यतः॥४॥

अन्वयः-इमे सुता इन्दवो हि यतो वान्तौ सहचारिणाविन्द्रवायू प्रकाशन्ते तो चोपागतमुपागच्छतस्ततः प्रयोभिरन्नादिभिः पदार्थेः सह सर्वे प्राणिनः सुखान्युशन्ति कामयन्ते॥४॥

भावार्थ:-अस्मिन्मन्त्रे प्राप्यप्रापकपदार्थानां प्रकाशः कृत इति।।४॥

पदार्थ:-(इमे सुताः) जैसे प्रत्यक्ष जलक्रियामय यज्ञ और प्राप्त होने योग्य भोग (इन्द्रवायू) सूर्य और पवन के योग से प्रकाशित होते हैं। यहां ‘इन्द्र' शब्द के लिये ऋग्वेद के मन्त्र का प्रमाण दिखलाते हैं-(इन्द्रेण०) सूर्य्यलोक ने अपनी प्रकाशमान किरण तथा पृथिवी आदि लोक अपने आकर्षण अर्थात् पदार्थ बैंचने के सामर्थ्य से पुष्टता के साथ स्थिर करके धारण किये हैं कि जिससे वे 'न पराणुदे' अपने-अपने भ्रमणचक्र अर्थात् घूमने के मार्ग को छोड़कर इधर-उधर हटके नहीं जा सकते

(इमे चिदिन्द्र०) सूर्य लोक भूमि आदि लोकों को प्रकाश के धारण करने के हेतु से उनका रोकनेवाला है अर्थात् वह अपनी खेंचने की शक्ति से पृथिवी के किनारे और मेघ के जल के स्रोत को रोक रहा है। जैसे आकाश के बीच में फेंका हुआ मिट्टी का डेला पृथिवी की आकर्षण शक्ति से पृथिवीही पर लौटकर आ पड़ता है, इसी प्रकार दूर भी ठहरे हुए पृथिवी आदि लोकों को सूर्य ही ने आकर्षण शक्ति की खेंच से धारण कर रक्खे हैं। इससे यही सूर्य बड़ा भारी आकर्षण प्रकाश और वर्षा का निमित्त है। (इन्द्रः०) यही सूर्य्य भूमि आदि लोकों में ठहरे हुए रस और मेघ को भेदन करनेवाला है। भौतिक वायु के विषय में 'वायवा याहि०' इस मन्त्र की व्याख्या में जो प्रमाण कहे हैं, वे यहां भी जानना चाहिये_

_ अथवा जिस प्रकार सूर्य और पवन संसार के पदार्थों को प्राप्त होते हैं वैसे उनके साथ इन निमित्तों करके सब प्राणी अन्न आदि तृप्ति करनेवाले पदार्थों के सुखों की कामना कर रहे हैं। (इन्दवः) जो जलक्रियामय यज्ञ और प्राप्त होने योग्य भोग हैं, वे (हि) जिस कारण से पूर्वोक्त सूर्य और पवन के संयोग से (उशन्ति) प्रकाशित होते हैं, इसी कारण (प्रयोभिः) अन्नादि पदार्थों के योग से सब प्राणियों को सुख प्राप्त होता है।।४॥

भावार्थ:-इस मन्त्र में परमेश्वर ने प्राप्त होने योग्य और प्राप्त करानेवाला इन दो पदार्थों का प्रकाश किया है।।४॥

एतन्मन्त्रोक्तो सूर्य्यपवनावीश्वरेण धारितावेतत्कर्मनिमित्ते भवत इत्युपदिश्यते

अब पूर्वोक्त सूर्य और पवन, जो कि ईश्वर ने धारण किये हैं, वे किस-किस कर्म की सिद्धि के ___ निमित्त रचे गये हैं, इस विषय का अगले मन्त्र में उपदेश किया है