ऋग्वेद 1.3.11

 चोदयत्री सूनृतानां चेतन्ती सुमीनाम्।

यज्ञं दधे सरस्वती॥११॥

चोदयत्री। सूनृानाम्। चेतन्ती। सुऽमतीनाम्। य॒ज्ञम्। धे। सरस्वती॥ ११॥

पदार्थः-(चोदयित्री) शुभगुणग्रहणप्रेरिका (सूनृतानाम्) सुतरामनयत्यनृतं यत्कर्म तत् सून् तदृतं यथार्थं सत्यं येषां ते सूनृतास्तेषाम्। अत्र 'ऊन परिहाणे' अस्मात् क्विप् चेति क्विप्। (चेतन्ती) सम्पादयन्ती सती (सुमतीनाम्) शोभना मतिर्बुद्धिर्येषां ते सुमतयस्तेषां विदुषाम् (यज्ञम्) पूर्वोक्तम्। (दधे) दधाति। छन्दसि लुङ्ललिटः। (अष्टा०३.४.६) अनेन वर्त्तमाने लिट्॥११॥

अन्वयः-या सूनृतानां सुमतीनां विदुषां चेतन्ती चोदयित्री सरस्वत्यस्ति, सैव वेदविद्या संस्कृता वाक् यज्ञं दधे दधाति॥११॥

भावार्थ:-या किलाप्तानां सत्यलक्षणा पूर्णविद्यायुक्ता छलादिदोषरहिता यथार्थवाणी वर्त्तते, सा मनुष्याणां सत्यज्ञानाय भवितुमर्हति नेतरेषामिति।११॥

पदार्थः-(सूनृतानाम्) जो मिथ्या वचन के नाश करने, सत्य वचन और सत्य कर्म को सदा सेवन करने (सुमतीनाम्) अत्यन्त उत्तम बुद्धि और विद्यावाले विद्वानों की (चेतन्ती) समझने तथा चोदयित्री) शुभगुणों को ग्रहण करानेहारी (सरस्वती) वाणी है, वही सब मनुष्यों के शुभ गुणों के प्रकाश करानेवाले यज्ञ आदि कर्म धारण करनेवाली होती है।११॥भावार्थ:-जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्यायुक्त और छल आदि दोषरहित विद्वान् मनुष्यों की सत्य उपदेश करानेवाली यथार्थ वाणी है, वही सब मनुष्यों के सत्य ज्ञान होने के लिये योग्य होती है, अविद्वानों की नहीं।।११॥

पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते॥

ईश्वर ने फिर भी वह वाणी कैसी है, इस बात का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है