पं नाथूराम गोडसे का ऐसा योगी रूप देखकर जेल अधिकारी भी रह गए थे दंग .

गोडसे ने अम्बाला जेल को बना दिया था हिन्दू राष्ट्र मंदिर का सत्संग भवन



          फांसी पर चढ़ने से एक दिन पहले सरकार ने गोडसे और नाना आप्टे के कुछ परिजनों को अम्बाला जेल में मिलने की अनुमति दे दी. सरकार ने हिन्दू सभा व संघ से जुड़े किसी भी व्यक्ति को जेल में मिलने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत दिग्विजय नाथ, वीर सावरकर व सावरकर टाइम्स के संपादक जंग बहादुर क्षत्रिय के पिताश्री हिन्दुसभाई नेता श्री चमनलाल क्षत्रिय व कुरान की 24 आयतों पर मुकदमा जीतने वाले पंडित इन्द्रसेन शर्मा को भी पंडित नाथूराम गोडसे से जेल में मिलने से रोक लगा दी गई | नेहरु को भय था कि कहीं महाराष्ट्र के हिन्दू क्रन्तिकारी गोडसे व उनके सहयोगियों को जेल से मुक्त ना करा ले, इसके लिए शासन ने काफी चौकसी की हुई थी.


      अंतिम दर्शनों के लिए 14 नवम्बर की सुबह 10 बजे लगभग 35 के करीब लोग जेल में पहुंचे. सबकी अच्छी तरह तलाशी लेकर ही जेल अधिकारीयों ने उनको प्रवेश कराया. प्रवेश द्वार के पास एक कक्ष में ले जाकर पुनः  उनके नाम पते आदि की जाँच कर  अलग-अलग 7-8 के ग्रुप में भीतर भेजने की व्यवस्था रखी. मिलने वालों में नाना आप्टे की पत्नी चम्पूताई भी थी. 
    सभी परिजन अपने साथ फल, पूरन पोली मिष्ठान भी लाए थे. सभी प्रकार के खाने के समान की भली भांति जांच जेल अधिकारीयों ने कर ली थी. पूरन पोली - चने की दाल, गुड व आटे के मिश्रण  तैयार किया जाता है. हर मंगल प्रसंग पुरण पोली के बिना अधुरा हैं- ऐसा भाव मानते हुए कि देश की रक्षार्थ गोडसे का बलिदान देश भक्ति के साथ एक मंगल कार्य भी है.  
   कड़े सुरक्षा प्रहरी और ऊँची प्राचीरों से घिरे कारागार के आंगन के बीच से चलते हुए, फांसी घर के पास स्थित काल कोठरी तक परिजनों का एक समूह पहुंचा. उस समय कोठरी के बाहर दीवार के साथ लगे एक तख़्त पर पंडित गोडसे आसन लगा कर ध्यानस्थ मग्न बैठे थे. पास में ही कई पुस्तकों का संग्रह भी रखा हुआ था. सरदार पटेल ने नाना आप्टे व पं गोडसे को 'बी' श्रेणी का कैदी का दर्जा दिया हुआ था, इस कारण उनके अध्ययन व लेखन की सारी व्यवस्था थी. 



    कारागार में बंद आजीवन सजा भोग रहे गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे और मदनलाल पाहवा भी उस दिन अपने दैनिक श्रम को छोड़ कर भेंट करने वालों के साथी काल कोठरी के पास जमीन पर बैठ गए. मिलने वाले सम्बन्धी गण भी पंडित जी के सामने नीचे जमीन पर बैठ गए. और पंडित जी के उठने की प्रतीक्षा करने लगे. थोड़ी देर में पंडित जी आँख खोली, अपने परिजनों को देखकर मुस्कराए. सभी का भावाभिभूत होना स्वाभाविक था, उठकर सभी से यथा योग्य आदर सत्कार से मिले. फिर, वहां उपस्थित संबंधियों को संबोधित करते हुए पंडित नाथूराम गोडसे ने कहा, " मैं शाण्डिल्य गोत्रीय,जो चितपावन ब्राह्मण कुल में जन्मा हूँ, आप सभी का इस पावन कारागार मंदिर में आपका स्वागत करता हूँ, यह हमारी अंतिम भेंट हैं, चूँकि जीवन यात्रा में अब थोड़ा सा समय बचा है, अतः राष्ट्र-धर्म की चर्चा करें."
पंडित जी गोडसे व आप्टे ने अपने संबंधियों नातेदारों से परिवार की कुशल क्षेम पुछा, इसके बाद उन सबमें हिन्दू राष्ट्र व सनातन धर्म व देश की स्थिति पर भी गंभीरता से चर्चाएँ होने लगी. पंडित जी बहुत ही संतुलित वाणी से और अत्यंत सहजता से वार्तालाप कर रहे थे.



    भेंट करने वालों ने एक ने अपनी यात्रा का अनुभव बताया कि दिल्ली से अम्बाला आते समय रेल में बहुत भीड़ थी, एक भी सीट खाली नहीं थी,  चूँकि समय नहीं बचा था, रात का समय था इसलिए भी ट्रेन छोड़ नहीं सकते थे, सबने खड़े-खड़े ही आना स्वीकार किया. थोड़ी देर बाद हमारी वेश भूषा को देखकर जब किसी यात्री ने पूछा की - कहाँ जा रहे हैं आप लोग ? इस पर मैंने कहा कि-" हम अम्बाला जेल में गाँधी-वध करने वाले पंडित नाथूराम गोडसे से मिलने जा रहे हैं- इतना सुनते ही वहां मोजूद लोंगों में अजब सा उत्साह फैल गया. उसके बाद विभाजन के बाद से पंजाब में हो रही हिन्दूओं की हत्याओं व लूटपाट की चर्चाएँ जोर-शोर से होने लगी, गाँधी-वध को सभी सही व उचित कदम मान रहे थे"
 मार-काट, हिन्दू  जैसे शब्दों को सुनकर आसपास तैनात जेल की काल पुलिस वाले भी भेंट करने वालों के निकट आकर खड़े हो गए. इतने एक बुजुर्ग सम्बन्धी ने गोडसे से कहा, " जबसे महराष्ट्र से यहाँ तक आते हुए मैंने अनेक लोगों से आपसे अंतिम दर्शन मिलने की बात बताई तो सभी का मानना था कि गाँधी को गोडसे नहीं, बल्कि पाकिस्तान से निर्वासित लुटे हुए बेघर हिन्दुओं के श्राप ने मारा है, गोडसे तो केवल गोली चलाई ". 



    पंडित जी आँख बंद कर मौन होकर यह सब सुन रहे थे. इतने दुसरे समूह में कुछ लोग फांसी घर के सामने बरामदे से कालकोठरी के सामने आ पहुंचे. परिजनों से मिलने के लिए गोडसे व आप्टे को काल कोठरी की ताले खोल दिए गए थे. जेल के पहरेदारों का विशेष प्रहरा था. जो लोग पहले आए हुए थे, वे जमीन पर ही बैठे हुए थे, उठना नहीं चाहते. वहा उपस्थित जेल अधिकारी ने कुछ सोचकर उनसे उठने को नहीं कहा और चला गया. 
  गाँधी-वध के यह सभी जेल की फाईलों में क्रूर कर्मी के रूप में दर्ज थे, परन्तु पंडित नाथूराम गोडसे के राष्ट्रवादी विचारों से और गीता के आध्यात्मिक ज्ञान से वहां के सभी अधिकारी वर्ग व अन्य पुलिस कर्मी सभी बहुत प्रभावित थे. शिमला उच्च न्यायालय में पंडित जी के लिए जिस प्रकार वहां का बुद्धिजीवी साम्भ्रांत वर्ग  उनके व्यक्तव्यों को सुनने आता था. महिलाऐं अपने हाथ से बुने हुए स्वेटर बुनकर पंडित जो पहनने के लिए आग्रह करती थी, उससे पंडित जी ने सभी का ध्यान खिंचा. शासन की ड्यूटी करना उनकी मजबूरी थी, फिर वे गोडसे व उनके साथियों के साथ बहुत विनम्र व्यवहार करते थे. 



    इसका एक अन्य कारण यह भी रहा कि जेल प्रशासन में अधिकांश सुरक्षाकर्मियों के परिवार की भी कहीं न कहीं इस विभाजन में हानि हुई थी. पाकिस्तान बन जाने के बाद जो मार-काट हुई, उसमें अचल संपत्ति तो नष्ट हुई थी. किसी के माता-पिता मारे गए, किसी की माँ-बहन का अपहरण हुआ था,उनकी इज्जत तार-तार हुई, और ना जाने कितने ही मुस्लिम समुदाय के द्वारा लूट-खसोट के बाद किसी तरह जीवित बचकर भारत पंहुचा था. देश विभाजन के कारण हिन्दुओं की दुर्दशा के समाचार और आँखों देखा हाल सबके सामने था, इसलिए जेल के पुलिस अधिकारी भारत शासन की नौकरी करते हुए भी जो कुछ उनसे बन पड़ा, मराठा वीरों को हर संभव सुविधाएं प्रदत्त कराई. 
    मिलने वालों को ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा था कि  गोडसे को किसी प्रकार भी फांसी लगने का कोई दुःख है, वे मृत्यु से बिलकुल भी भयभीत नहीं थे, अपितु, वे एक योगी की भांति शान्त गंभीर चित्त होकर वह सबकी बात सुन रहे थे, और अपनी बातों को बहुत अर्थपूर्ण ढंग से कह रहे थे. 
     भेंटकर्ताओं की बातों में भी सार यही था कि - देश में गोडसे की देश भक्ति को सराहा जा रहा है और  कांग्रेस के प्रति एक धिक्कार की भावना समाप्त नही हो रही. चर्चा करते हुए काफी समय बीतने पर नाना आप्टे को लगा कि परिजनों को कुछ खाने को दिया जाए, इसलिए उन्होंने उन्हीं  फलों को ग्रहण करने का उनसे निवेदन किया, परन्तु किसी ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया, ये सब वे गोडसे व उनके सहयोगी क्रांतिकारियों की सेवा के लिए लाए थे.
  सभी के मन में पंडित गोडसे की फांसी को लेकर बहुत क्षोभ था, परन्तु वे कर ही क्या सकते थे ? जब शासन मुस्लिम परस्त सेकुलर नेताओं के चुंगल में था. फिर वहां किसी मिलने वाले ने बताया कि, " जैसे ही हम अम्बाला स्टेशन पहुंचे, तो पंजाब के हिन्दू भाईयों ने हमसे ठहरने के लिए पूछा - आप लोगों के रुकने की क्या व्यवस्था है ? हमने उन्हें बताया कि  फलां धर्मशाला में हमें जाना है, तो उन भाईयों ने हमें कई तांगे करा दिया, जिससे हम सीधे धर्मशाला पहुँच गए. जब हम सब तांगे से उतरे तो वे सब तांगे वाले कहने लगा कि आप लोग प्राण संकट में डाल कर महान देशभक्त पंडित गोडसे के दर्शन करने यहाँ आए हो, हम आपसे एक रुपया नहीं लेंगे. यह तो हमारा सौभाग्य है, जो आप मराठा वीरों के दर्शन हो गए". कहते कहते हुए उस व्यक्ति के आँखों में एक गर्व की झलक आ गई. 



   भेंटकर्ता की बातों को पंडित गोडसे जी बड़े धीर ह्रदय से सुनते रहे, वे मन ही मन हिन्दू जनमानस में उमड़ रहे विद्रोह व राष्ट्र की आगामी समस्याओं व चिंताओं पर भी विचार कर रहे थे. पंडितजी ने उन्हें समझाते हुए कहा,"अपने कर्तव्य कर्म को ही करते रहना चाहिए, चाहे इसमें कितना ही कष्ट क्यों ना हो, चाहे इस काम को करते हुए हमें सम्मान ना मिले, किन्तु जो हमारे गुणों और स्वभाव से अलग काम है, चाहे उस काम को करने में बहुत लाभ हो, तो भी नहीं करना चाहिए. हमारी अंतरात्मा ही हमारे स्वभाव व गुणों के अनुसार हमें किसी काम को करने के लिए प्रेरित करती है, वही करो जो अन्दर से भाव आ रहा है",
फिर इस उपदेश को अपने राजनीतिक धर्म से जोड़ते हुए पंडित जी ने कहा,  "मैंने भी गाँधी वध अपनी भीतरी आवाज को सुनकर किया. मेरा स्वभाव देश भक्ति है, राष्ट्र के लिए ही मेरा धर्म है, राष्ट्र सेवा ही मेरा गुण है. उसी गुणों के वशीभूत होकर मैंने क्षात्र धर्म निभाया. देश की पुनः अखंडता के लिए अनेक हिन्दू वीरों को बलिदान के लिए तैयार रहना होगा, ऐसा नियति का संकेत है."



    कारावास की अवधि में भी नित्य प्रतिदिन पं नाथूराम गोडसे निरंतर गीता का स्वाध्याय करते थे. गीता के ज्ञान व कृष्ण के प्रति अगाध श्रद्धा से उनका जीवन योगमय हो गया था. बाल्यकाल से ही नाथूराम की स्मरण शक्ति बहुत ही तीव्र थी. मनुस्मृति, रामायण, महाभारत के अनेक श्लोक उन्हें कंठस्थ थे. आध्यात्मिक साधना में उनकी रूचि के कारण उनमें एक विशेष दैवीय गुण प्रकट होने लगा. पूजा करते समय वे लोगों के प्रश्नों का उत्तर देने लगे, वे बातें सच साबित होती रही तो परिवार और अन्य सम्बन्धियों में यह विश्वास और अधिक होगा गया कि नाथूराम कोई साधारण बालक नहीं है. आगे चलकर नाथूराम के राष्ट्रचिंतन व धर्म ज्ञान से प्रसन्न होकर वीर सावरकर ने उन्हें पंडित जी की उपाधि प्रदान की. 
    अंतिम भेंट के लिए आए परिजनों और मित्रों से बहुत शान्त चित्त होकर भेंट कर रहे थे. मृत्यु से एक दिन पूर्व भी पंडित गोडसे की आँखों में एक अद्भुत तेज चमक रहा था. उनकी वाणी में योगी की गंभीरता झलक रही थी. कारागृह के पहरेदारों भी दृश्य देखकर भाव विभोर होने लगे. पंडित जी गीता के दुसरे, ग्यारहवें व अठारहवें अध्याय को सबसे अधिक महत्व देते थे. शाम को अपने साथ जेल में बंद साथियों के साथ कर्म व अनासक्त कर्म पर चर्चा करते थे. महाभारत के पात्रों को आधुनिक सन्दर्भ में जोड़ते हुए उनके उपदेशों में गीता की अनुपम व्याख्या प्रस्तुत होती थी. 
    इस प्रकार बातचीत एक सत्संग की भांति चल रही थी. पंडित जी ने कहा, "गीता के ग्यारहवें अध्याय में भगवान वासुदेव ने अर्जुन को अपने दिव्य विराट रूप दिखाया, जैसे विराट के मुख में दुर्योधन, कर्ण सहित सम्पूर्ण कौरव सेना काल का ग्रास बन रही है, ठीक वैसे ही काल पहले गांधी और अनेक हिन्दू राष्ट्र धर्म द्रोहियों को पहले ही मृत्युदंड दे चूका है, ऐसा मुझे ध्यान में दिखाया दिया. मैंने अर्जुन की भांति अपने कर्तव्य का पालन किया और शस्त्र प्रयोग कर गाँधी को यमलोक पहुंचाया ". 
    अपने सहयोगी वीरों के साथ इसी तरह के रहस्यपूर्ण व्याख्यान नित्य ही कारावास में करते थे. पंडित जी के छोटे भाई गोपाल गोडसे को यह विश्वास पहले से ही था कि नाथूराम में बचपन से ही कोई दैवीय शक्ति रही है, परन्तु अब गोडसे के मुख से निकलने वाली शौर्य युक्त दिव्य वचनों के प्रभाव से सभी साथियों का भी विश्वास और दृढ होता जा रहा था. जेल के अधिकांश पुलिस अधिकारी गोडसे के ह्रदय से आदर करते थे, क्योंकि वे जानते थे कि गोडसे द्वारा गाँधी वध के पीछे केवल एक ही भावना थी, भारत की पूर्ण स्वतंत्रता. 
 सम्बन्धियों से घीरे पंडित जी के मुख से निरंतर जो शब्द निकल रहे थे, उनमें एक अलौकिकता झलक रही थी, भक्त ध्रुव का उदहारण देते हुए उन्होंने कहा, " जिस प्रकार ध्रुव के भीतर अमरता और स्थिर जीवन की भावना जागृत हो गई थी, और किसी भी प्रकार के प्रलोभन के समक्ष उसने अपने स्वाभिमान को झुकने नहीं दिया, ठीक उसी प्रकार हम भी एक स्थिर व स्वतंत्र राष्ट्र चाहते हैं. हमारा भी स्वाभिमान जाग चूका है. ध्रुव ने तप किया, हमने भी तप करना प्रारम्भ किया. क्रूर विदेशी शासक ने कितने ही अत्याचार किये, प्रलोभन दिए, किन्तु पूर्ण स्वराज्य से कम हमने कभी नही स्वीकारा, और यही उद्देश्य अंतिम श्वास तक रहेगा- अखंड भारत की पूर्ण स्वतंत्रता. हमें ध्रुव के सामान अपने लक्ष्य पर स्थिर रहना होगा, तभी करोडो हिन्दुओं का यह स्वप्न साकार होगा."
  भेंट करने वालों  के ह्रदय में गाँधी-वध के बाद पुनर्जीवित हुई राष्ट्रवाद की जो भावना थी, उसके कारण वे पंडित जी के दर्शन और प्रत्यक्ष साक्षात्कार करके स्वयं को धन्य महसूस कर रहे थे. पंडित जी  की वाणी व हाव भाव में मृत्यु का कहीं भी भय नहीं था, न ही कोई शोक  था. भेंट कर्ताओं के साथ बातचीत के दौरान पंडित जी आत्मा की दिव्यता, अमरता व अनासक्त कर्म से सम्बंधित श्लोक सुना कर सबको मन्त्रमुग्ध करने लगे. इस प्रकार का यह अद्भुत सत्संग शाम 5 बजे तक चलता रहा. पंडित जी अपने ज्ञान से सबको हर्षित व मन्त्र मुग्ध कर रहे थे, तुकाराम की वाणी स्पंदन उनके व्याख्यान में महसूस हो रहा था. 
    ड्यूटी पर तैनात अधिकारीयों ने हमेशा लोगों के साथ ऐसे साक्षात्कारों में  मृत्युदंड के भय के कारण रोदन- क्रंदन ही देखा था. पंडित गोडसे की योग शक्ति से यह भेंटवार्ता एक सत्संग में परिवर्तित हो गई थी. 
नाना आप्टे ने अपनी पत्नी चम्पूताई से आधा घंटे बातें की. दोनों ही बड़े संयम से एक दुसरे से मिले. सूर्यास्त का समय होने लगा, अब बिछड़ते समय मिलने वाले सभी आँखों में एक विचित्र सी खामोशी थी. राष्ट्र व धर्म चिंतन करते हुए समय का पता ही नही चला. अब जेल अधिकारीयों का इशारा हो गया था कि मिलने का समय समाप्त हो चूका है. भरे हुए ह्रदय से सभी परिजन लौटने लगे. जाते हुए किसी ने पंडित गोडसे को गले लगाया, किसी ने उनके चरण रज को माथे लगाया. 
   गोडसे से मिलने  वालों इन मराठा वीरों का अम्बाला में बहुत ही सम्मान हुआ. एक भोजनालय के मालिक जब पता चला कि महाराष्ट्र से लोग का यह समूह गोडसे से मिलने आया है, तो उसने बिना मूल्य लिए सबको भोजन कराया. जब तक ये लोग अम्बाला में रहे स्थानीय लोगों ने अपनी ओर से भोजन की व्यवस्था की. जब वे लोग वापस स्टेशन में हिन्दुओं की भारी भीड़, विदाई के लिए एकत्रित हो गए, अनेक के हाथों में भगवा ध्वज था, कईयों ने केसरिया पगड़ी पहने हुई थी, और पूरा स्टेशन 'अखंड भारत की जय' , 'वीर गोडसे अमर रहे' के नारों से गुंजायमान हो रहा था.